Tuesday, April 28, 2015

78500 बच्चों को बचाने वाला मसीहा: कैलाश सत्यार्थी

दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार माना जाने वाला नोबेल शांति पुरस्कार २०१४ जब भारत के कैलाश सत्यार्थी को ( मलाला युसूफज़ई के साथ ) देने की  घोषणा की गयी तो सारा  भारत गर्व से फूल गया। पहले भी कई  भारतीयों को दिया जा चूका है ; मगर शायद ही किसी और भारतीय ने अपनी रह में इतने संकटों का सामना किया हो। भारत के बच्चो को बालमजदूरी के नर्क से निकालने के लिए कई बार सत्यार्थी जी में मौत का सामना किया। सत्यार्थी जी की संस्था `बचपन बचाओ आंदोलन ' अब तक ७८००० से ज्यादा बालकों का बचपन संवार चुके है। मेरा तो मानना है  सत्यार्थी दुनिया के बचपन को नहीं बचा रहे वो दुनिया का भविष्य सुरक्षित कर रहे हैं। सच भी है दुनिया का भविष्य बच्चे ही तो बनाते है।  
      सत्यार्थी जी का मूल नाम कैलाश शर्मा है मगर वो अपने गोत्र का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि उनकी गोत्र उनकी जाति को स्पष्ट कर देता है। वो जातिवाद के खिलाफ है सो वो अपनी जाति का अपने नाम के साथ इस्तेमाल  नहीं करते।  कैलाश सत्यार्थी का जन्म ११ जनवरी १९५४ ई० को मध्यप्रदेह के विदिशा में हुआ था। सत्यार्थी जी को भोपाल गैस त्रासदी के राहत अभियान और बच्चों के लिए काम करने को लेकर दुनिया का ये सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला है। पिछले दो दशकों से वे बालश्रम के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं और इस आंदोलन को वैश्विक स्तर पर ले जाने के लिए जाने जाते हैं।
       पेशे से इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर रहे कैलाश सत्यार्थी ने 26 वर्ष की उम्र में ही करियर छोड़कर बच्चों के लिए काम करना शुरू कर दिया था। उन्हें बाल श्रम के ख़िलाफ़ अभियान चलाकर हज़ारों बच्चों की ज़िंदग़ियां बचाने का श्रेय दिया जाता है। इस समय वे 'ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर' (बाल श्रम के ख़िलाफ़ वैश्विक अभियान) के अध्यक्ष भी हैं।बीता।
 यहीं उन्होंने प्राइमरी से लेकर इंजीनियरिंग तक की  
पिता रामप्रसाद शर्मा पुलिस की नौकरी करते थे और माता चिरोंजीबाई गृहिणी थीं।कैलाश सत्यार्थी की 
कैलाश सत्यार्थी किलेअंदर के वीर हकीकत मार्ग पर जिस घर में रहा करते थे, उनके परिजन आज भी उसी घर में रहते हैं। उनके बड़े भाई डॉ. जगमोहन शर्मा ने बताया कि कैलाश ने प्रारंभिक शिक्षा शहर के पेढ़ी स्कूल और तोपपुरा स्कूल में ग्रहण की है। 
करुणा तो मनो जन्म  से ही विरासत में मिली थी।  मात्र ५ साल की उम्र में जब सत्यार्थी स्कूल गए तो उनका ध्यान स्कूल के पास फुटपाथ पर बैठे मोची के मासूम  बालक की आँखों में स्कूल जाने की ललक देखि तो उनका मन भर आया।  तब उनकी समझ में नहीं आया की वो उनकी तरह स्कूल क्यों नहीं जाता। तब ना पिता जी ना अध्यापक उनके मन की उत्सुकता को शांत  कर सके।  एक दिन मोची के उसी बालक को पिता से पिटता देखा तो सत्यार्थी जी उसका रोना   नहीं  सहा गया।  मोची से पूछा की वो अपने बेटे को क्यों मार रहा है ; तो मोची ने बताया -" बाबू साहब मैं घर खाना खाने के लिए गया था।  इसे कहकर गया था कि ये जूतों का ध्यान रखे और  इन्हे भीगने ना दे।  बारिश आ गयी तो ये कमबख्त पिन्नी से सामान को ढंकने के बजाए पिन्नी के नीचे खुद ही छिप गया।  सारा सामान भीगकर खराब हो गया बाबू साहब। मैं गरीब आदमी हूँ बाबू साहब इन चंदे के जूतों के पैसे ग्राहकों को कहाँ से दूंगा जो इन्हे यहां ठीक करवाने के लिए छोड़कर गए थे। "
सत्यार्थी जी का मन उलझ गया।  जहाँ उनके बड़े भाई साहब ने उन्हें बारिश से बचने के लिए रेनकोट और छाता दे रखे थे दूसरी तरफ मोची को अपने बेटे के बारिश में भीगने की कोई चिंता ही नहीं थी उसे तो बस अपने जूतो को फ़िक्र थी। बस, सत्यार्थी जी ने अपना छाता मोची को दे दिया - जिसे वो बड़ा प्यार करते थे।  



       भाभी रतीदेवी शर्मा ने बताया कि घर पर भीख मांगने आने वाले बच्चों को कैलाश खाना खिलाते थे। उन्हें लिखने-पढ़ने के लिए कॉपी किताबें दिया करते थे। एक बार उन्होंने सत्यार्थी को सजा के तौर पर धूप में खड़ा कर दिया। वह बहुत देर तक धूप में खड़े रहे जिससे उनके पैर में फफोले पड़ गए थे।
       छात्र जीवन के पहले साल से शुरू हुआ परोपकार का सिलसिला आगे भी जारी रहा और लगातार आगे बढ़ता रहा।  मात्र ग्यारह साल की उम्र में सत्यार्थी जी ने एक ठेला लेकर -(स्कूल के फ़ाइनल एक्साम्स ख़त्म  होने के बाद )- छात्रों से उनके कोर्स की पुरानी  किताबें मांगकर इकट्ठी करनी शुरू कर दीं उनका पहला  प्रयास इतना इतना सफल रहा कि कहाँ तो वो क्लास ६ के लिए किताबें लेने निकले थे उनके पास स्नातकोत्तर तक की किताबें जमा हो गयीं किसी ने ठीक ही कहा है कि जब इरादे नेक हों और रास्ता पाक हो तो कितना भी मुश्किल काम आसान हो जाता है। हजारों किताबें जमा हो जाने के बाद कैलाश सत्यार्थी विदिशा के कुछ स्कूलों के प्रधानाचार्यों से मिले। सब ने उस ग्यारह साल के मासूम के फौलादी इरादों का साथ दिया और विदिशा में पुस्तकों का एक ऐसा भंडार तैयार हो गया, जिसने कई विद्यार्थियों को अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ने के संकट से उबारा। अभी भी यह पुस्तकालय वहां चल रहा है और जरूरतमंद इसका लाभ उठा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि यहां विद्यार्थियों को पुस्तकें साल भर के लिए ही दी जाती हैं ताकि अगले साल उन किताबों से किसी और के अज्ञान का अंधोरा मिट सके। कैलाश सत्यार्थी के इस प्रयोग को छोटे-छोटे स्तर पर किए जाने की जरूरत है। ऐसे प्रयासों से अज्ञान का अंfधयारा मिटाने में काफी मदद मिलेगी और संपूर्ण राष्ट्र का भला होगा।
    सत्यार्थी जी  ने  बचपन से ही  कुरीतियों का विरोध किया  है।  सत्यार्थी चर्चा  अाये थे जब उन्होंने गांधी जी की प्रतिमा के पास सफाई कर्मचारीयों से खाना बनवाया था।   
 आर्य समाज और लोहिया आंदोलन से जुड़ने के बाद उनके अनुज कैलाश शर्मा के विचारों में काफी द्रढ़ता आई। उन्होंने आर्य समाज की ज्वलंत समस्याओं को लेकर सत्यार्थी शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। यह पुस्तक काफी चर्चा में रही। इसी पुस्तक के शीर्षक के चलते उनका नाम कैलाश शर्मा से `कैलाश सत्यार्थी' पड़ गया।समाजवादी नेता मधु लिमये से भी संपर्क में रहे।
अग्रज जगमोहन शर्मा बताते हैं कि कैलाश सत्यार्थी को आर्य समाज से जुड़कर काफी प्रेरणा मिली। बाबूलाल आर्य उनके गुरुजी थे। उन्हीं से उन्होंने आर्य समाज की शिक्षा-दीक्षा ली थी। बाद में स्वामी अग्निवेश और इंद्रवेश जैसे बड़े आर्य समाजियों से जुड़कर आंदोलन को व्यापक रूप दिया। आर्य समाज में व्याप्त पुरातन परंपराओं को भी सुधारने का प्रयास किया।        
       उन्होंने एसएसएल जैन स्कूल में शिक्षा लेने के बाद एसएटीआइ से बीई इलेक्ट्रिकल ब्रांच से इंजीनिय¨रग की। इसके बाद इसी कॉलेज में दो साल तक पढ़ाया भी। कॉलेज प्रबंधन से विवाद के बाद नौकरी छोड़कर दिल्ली चले गए। बाद में वह केस जीते कॉलेज प्रबंधन ने उन्हें वापस भी बुलाया पर सत्यार्थी जब तब अपनी अलग राह बना चुके थे।
      कैलाश सत्यार्थी जेपी आंदोलन में भी सक्रिय रहे। छात्र आंदोलन में सत्यार्थी की सक्रिय भागीदारी रही। इसी दरम्यान 1978 में उनकी शादी हो गई। जयप्रकाश आंदोलन के बाद के दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, ‘राजनीति में आने का भारी दबाव था। शरद यादव जैसे मेरे कई मित्र जनता पार्टी की टिकट पर विजय पताका फहरा चुके थे। उस चुनाव के वक्त मेरी उम्र महज 23 साल थी। अगर मैं 25 का होता तो मुझे जबर्दस्ती चुनाव लड़ा दिया जाता।यह पूछे जाने पर कि 25 के बाद राजनीति में क्यों नहीं गए? क्या टिकट मिलते वक्त उम्र कम होने का बाद में अफसोस नहीं हुआ? पहले तो कैलाश सत्यार्थी जोर का ठहाका लगाते हैं और फिर संजीदगी के साथ बोलते हैं, ‘उस वक्त तक मैंने र्धामयुग, दिनमान के साथ-साथ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था। अपने कई लेखों और वक्तव्यों में मैंने साफ तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि राजनीति के जरिए सामाजिक परिवर्तन नहीं होता है, बल्कि समाजनीति के जरिए समाज में बदलाव आता है। जनता की उपेक्षा करके नहीं बल्कि जनता को साथ लेकर ही राज और समाज में सकारात्मक बदलाव होगा।राजनीति से कैलाश सत्यार्थी के मोहभंग के लिए यही सोच जिम्मेवार रही।
इसके बाद कैलाश सत्यार्थी नेसंघर्ष जारी रहेगाके नाम से एक पत्रिका निकाली। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर इस पत्रिका को दबे-कुचले लोगों की आवाज बना दी। हाशिए पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे लोगों के दर्द को इस पत्रिका ने समेटा। सत्यार्थी उस दौर को हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की शुरुआत मानते हैं। वे कहते हैं, ‘अस्सी के पहले हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में बंधुआ मजदूर जैसे शब्द भी नहीं थे।संघर्ष जारी रहेगा में बाल मजदूरों की समस्या को भी काफी प्रमुखता दी जाती थी। एक दिन पत्रिका के कार्यालय में वासल खान नाम का एक व्यक्ति आया और उसने बताया कि वह और उसका परिवार पिछले पंद्रह साल से पंजाब के एक ईंट भट्ठा पर बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। भट्ठा मालिक उसकी चौदह साल की मासूम बच्ची को दिल्ली से गए दलालों के हाथों बेचने वाले हैं। कई आंदोलनों में शामिल रहे नौजवान कैलाश ने आव देखा ताव और अपने कुछ साथियों और एक फोटोग्राफर को साथ लेकर पंजाब के उस ईंट भट्ठे पर पहुंच गए। चौकीदार को डरा-धमका कर बंधुआ मजदूरों को ट्रक में बैठा भी लिया। लेकिन इसी बीच भट्ठा मालिक पुलिस के साथ धमका। मजदूरों के साथ मार-पीट तो हुई ही, साथ ही साथ कैलाश और उनके साथियों के साथ भी दर्ुव्यवहार हुआ। इन नौजवानों को ट्रक के संग बैरंग वापस भेज दिया गया। फोटोग्राफर का कैमरा तोड़ दिया गया। लेकिन उसने फोटो खींची हुई तीन रील किसी तरह बचा ली थी। अगले दिन चंडीगढ़ और दिल्ली के अखबारों में यह फोटो अखबारों के पहले पन्ने पर थी। दिल्ली लौटने और जानकारों से सलाह-मशविरा करने के बाद कैलाश सत्यार्थी उच्च न्यायालय चले गए। अदालत ने 48 घंटे के भीतर उन मजदूरों को पेश करने का फरमान जारी कर दिया। अगले ही दिन वे बंधुआ मजदूर दिल्ली ले आए गए और उन्हें वर्षों की गुलामी से मुक्ति मिली। राष्ट्रीय स्तर पर सत्यार्थी की यह पहली बड़ी जीत थी। इसके बाद कैलाश सत्यार्थी ने स्वामी अग्निवेश के साथ मिल कर बंधुआ मुक्ति मोर्चा का गठन किया। वे बताते हैं, ‘काम करने के दरम्यान यह बात पुख्ता होती गई कि बंधुआ मजदूरों में बड़ी संख्या बच्चों की है। इस वजह से मैंने बचपन बचाओ आंदोलन का गठन किया।
उसके बाद `बचपन बचाओ आंदोलन' ने हजारों  बच्चों को बाल मजदूरी के

 नर्क से आज़ाद कराया। शुरू-शुरू में सत्यार्थी जी के  पास सुविधाओं का बड़ा आभाव था।  उनके रहने के फ्लैट में सोने के बेड  तक नहीं थे. सत्यार्थी अपने पत्नी सुमंधा कैलाशजी के साथ अखबार बिछाकर फर्श पर  करते थे। जिन बच्चो को वो  करवाकर लाते थे उन्हें भी फर्श पर ही सोना पड़ता था।  एक बार एक बाल मजदूर उनका साथ इसीलिए छोड़कर चला गया क्योंकि उसे लगा था कि जो आदमी खुद फर्श पर सो रहा हो वो उसका भविष्य क्या बनाएगा ? उससे बेहतर तो वो  पुरानी जगह पर ही  ठीक था।  बचपन बचाने की इस मुहिम में सत्यार्थी को काफी ठोकरें भी खानी पड़ी हैं। बच्चों से मजूरी कराने वालों ने उनके साथी को मौत के घाट भी उतार   दिया।  
१९८० के बाद उन्होंने शोषण झेल रहे बच्चो की आज़ादी के लिए दिन रात एक कर दिया।  सत्यार्थी जी का मानना है की बाल मजदूरी कोई  कई और रोगों की जड़ है।  उसके कारण कई लोगों की जिंदगियां  तबाह हो जाती है। बाल  मजदूरी को   ख़त्म करने के लिए एक बार जब सत्यार्थी जी अपनी  टीम के साथ बच्चों  करवाने के लिए एक सरकस में गए तो सर्कस के मालिक ने उनके पीछे शेर छोड़ दिया था।  घटना 15 जून 2004 की है। इसमें बाल श्रमिक किशोरियों के काम करने की गूंज पूरे देश में गूंजी थी। इस गूंज की वजह थे कैलाश सत्यार्थी। उनका ही जुनून था, जो उन्होंने जान की बाजी लगा 11 किशोरियों को मुक्त कराया। इस दौरान उन्होंने कर्नलगंज कोतवाली में यौन उत्पीड़न, बंधुआ मजदूर निषेध अधिनियम समेत 16 मुकदमे भी दर्ज कराए थे।
कर्नलगंज में चल रहे एक सर्कस में बाल श्रमिक किशोरियों के शोषण की सूचना कुछ जागरूक नागरिकों ने गैर सरकारी संगठन 'बचपन बचाओ आंदोलन' के प्रमुख कैलाश सत्यार्थी को दी थी। इसके बाद अगले ही दिन वह दिल्ली से कर्नलगंज पहुंच गए। इसकी भनक सर्कस संचालकों को हो गई। कैलाश सत्यार्थी जब किशोरियों से जानकारी हासिल कर रहे थे, तभी उन पर हमला बोल दिया गया। लोग बताते हैं उनको वहां पर सरियों और डंडों से दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया था। प्रत्यक्षदर्शियोंकी मानें तो उनकी कनपटी पर तमंचा तक रखा गया था और तो और शेर को छोड़ने के लिए पिंजरा तक खोल दिया था, मगर एक अफसर ने उसे किसी तरह बंद कर दिया। इसमें सत्यार्थी और उनके सहयोगी काफी जख्मी हो गए थे।
उनका इलाज गोंडा में कराया गया था। यह पूरा वाकया काफी सुर्खियों में रहा था। इसके बाद पुलिस प्रशासन हरकत में आया था। इस मामले में कर्नलगंज कोतवाली में बंधुआ मजदूर निषेध अधिनियम समेत अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया था। इस दौरान बाल श्रम करने वाली नेपाल, दार्जिलिंग व अन्य स्थानों से भगाकर लाई गई 11 किशोरियों को भी मुक्त कराया गया था। यही नहीं, दुष्कर्म का मामला भी दर्ज हुआ था।
ऐसे ही जाने कयने ही और उदाहरण हैं जब सत्यार्थी जी ने अपनी जान जोखिम में डाली मगर हार नहीं मानी।  
       बाल मजदूरी की समाप्ति के लिए लोक जागरण और जन आंदोलनों के साथ ही मजबूत कानूनों व सरकारी योजनाओं की मांगों को लेकर कैलाश सत्याथी के नेतृत्व में अनेकों यात्राएं की गई। इनमें 1993 में बिहार से दिल्ली तक की पदयात्रा, 1994 में कन्याकुमारी से दिल्ली तक की भारत यात्रा, 1995 में कोलकाता से काठमांडू तक की यात्रा और 2007 में बाल व्यापार विरोधी दक्षिण एशियाई यात्रा आदि प्रमुख हैं। शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने में भी उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। 2001 में लाखों लोगों को शामिल करके उन्होंने कन्याकुमारी से कश्मीर होते हुए दिल्ली तक की 20 राज्यों की 15 हजार किलोमीटर लंबी जनसाधारण यात्रा की।
    कैलाश सत्यार्थी पहले गैर सरकारी व्यक्ति हैं जिन्हें वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन को संबोधित करने का मौका मिला। महाधिवेशन के दौरान चलने वाली समानांतर बैठकों और कार्यक्रमों में तो विशेषज्ञ लोग हिस्सा लेते रहे हैं किंतु महासभा के मुख्य अधिवेशन को सिर्फ प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ही संबोधित कर सकते हैं। 2009 का विशेष सत्र बाल अधिकारों पर केंद्रित था। इसलिए संयुक्त राष्ट्रसभा ने अपने प्रोटोकाल में परिवर्तन करके कैलाश सत्यार्थी को विशेष अधिवेशन संबोधित करने का मौका दिया। उन्हें अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली आदि देशों की संसदों की विशेष बैठकों को संबोधित करने का भी मौका मिल चुका है। वे बाल मजदूरी और शिक्षा पर संयुक्त राष्ट्र संघ की कई महत्वपूर्ण समितियों के सदस्य हैं। उन्हें आक्सफोर्ड, हार्वर्ड, प्रिंसटन जैसे अनेकों विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देने हेतु आमंत्रित किया जाता रहा है।
अपने अथक प्रयासों से अस्सी हजार से अधिक बच्चों को बाल मजदूरी से निजात दिलाने वाले कैलाश सत्यार्थी को समाज के प्रति उनके इस अमूल्य योगदान के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। सत्यार्थी फिलहाल वे परिवार के साथ दिल्ली में रहते हैं और उनके परिवार में पत्नी सुमेधा, उनकी बेटी, बेटा और बहू शामिल हैं। साथ ही उनके साथ उनकी संस्था 'बचपन बचाओ आंदोलन' द्वारा बचाए गए बच्चे भी रहते हैं। उनकी पत्नी सुमंधा कैलाश, उनके अधिवक्ता पुत्र भुवन रिभु और पुत्रवधु प्रियंका बाल दासता के खिलाफ उनके संघर्ष के साथी हैं। उनकी पुत्री अस्मिता एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में अध्ययन पूरा करने के बाद वाशिंगटन स्थित विश्व की जानी-मानी संस्था इंटरनेशनल सेंटर फॉर मिशन एंड एसप्लाइटेड चिल्ड्रेन में एक वर्ष तक फेलो रहीं हैं।
सत्यार्थी जी ने अब तक लगभग ८००० बच्चो को ही आज़ाद नहीं करवाया बल्कि  के पक्ष में कई क़ानून भी बनवाए। उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार मिल चुका है उसके बावजूद भी भी वो उस पुरस्कार को बच्चों के नाम करते है। उनका कहना है की उनका संघर्ष अभी  थमा नहीं है उनका मकसद तो सारी  दुनिया के बच्चों को मजदूरी के नर्क से आज़ाद करवाना है। जब तक एक भी बच्चा बाल मजदूरी और शोषण का शिकार हो रहा है उकना संघर्ष जारी रहेगा।  

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