Saturday, May 2, 2015

अमेरिका में बहुराष्ट्रीय कंपनी की जॉब त्यागकर बुजुर्गों की सेवा को बना लिया : कबीर चढ्ढा

बात  एक घटना से शुरू करता हूँ।  
ऋषि राउटे राउते की दादी माँ की याददाश्त कुछ सालों से काम हो रही थी ;मगर अचानक उनकी तबियत और ज्यादा ख़राब होने  लगी थी।  राउते उन्हें  पास ले गया।  डॉक्टर ने चेक-अप  करके बताया की उन्हें 'सेनिल डिमेंशिया'(बुढ़ापे में पागलपन का रोग) है और उन्होंने कुछ दवाइयां लिख दीं। मुमकिन है कि वे दवाइयां पहले कारगर हो सकती थीं लेकिन इस बार ऐसा कहना मुश्किल था।  दादी की हालत बिगड़ती जा रही थी और वह कुछ खा नहीं पा रही थीं। हर वक्त परिवार परिवार में से किसी एक को उनके साथ हर वक्त रहना पड़ता था। वह दिन में सैंकड़ों दफा यह पूछतीं-" मुझे क्या करना है?"
 उनके हाथ को थामकर परिवार वाले उन्हें बार-बार  दिलासा देने की कोशिश कर रहे थे। दिन में कई बार उनके कपड़े बदलने होते थे। उन्हें बेबस, लाचार और डर-डर कर जीते हुए देखना काफी मुश्किल हो रहा था। परिवार वाले  हालात से तंग चुके थे। ठीक उसी हफ्ते ऋषि ने  'एपॉक  एल्डर केयर' के बारे में लेख देखा। उन्होंने उनसे सम्पर्क किया। इसके संस्थापक कबीर चड्ढा 'बुजुर्गों की देखभाल करने वाले एक विशेषज्ञ' के साथ हमारे पास आए। उन्होंने दादी को देखने के बाद कहा कि उन्हें अल्जाइमर नाम की बीमारी है। उन्होंने हमें डॉक्टर सुषमा चावला के संपर्क में रहने को कहा। 
चावला एक गैर सरकारी संगठन 'होप-एक आशा' चलाती हैं -जो अल्जाइमर रोगियों के लिए काम करता है। उन्होंने उन्हें बड़ी सरलता से समझाते हुए कुछ तरीके बताए। उनका पूरा जोर रोजमर्रा की दिनचर्या और उस पर अमल करने पर था। इस बार परिवार वालों ने  उनकी देखभाल के लिए एक नर्स रख ली। ऋषि के परिवार ने  एपॉक की सेवाएं जारी रखीं। इसके एक विशेषज्ञ उनकी  दादी को देखने के लिए हफ्ते में तीन बार आते हैं। उनसे बात करते हैं, उनके साथ खेलते हैं जिससे दिमागी कसरत होती है। वह दादी के साथ गाना गाते-गुनगुनाते भी हैं। ऐसा नहीं है कि ऋषि की  दादी को यह सब पसंद है; मगर अब वह ज्यादा शांत हैं और कई बातों पर अपनी प्रतिक्रिया देती हैं। हमारे लिए यही सबसे बड़ी बात है। पूरे परिवार को मानो मन मांगी मुराद मिल चुकी है।  
        ऋषि राउते सामान ही `एपॉक एल्डर केयर ' कितने ही  परिवारों  बुजुर्गों की बुढ़ापे की समस्या के कबीर निजात दिलवा चुकें है।  कबीर को  बुजुर्गों की सेवा को ही अपना रोजगार बनाने का ख्याल कुछ साल पहले आया था जब वो अमेरिका से  २०११ ई ० में अपनी नौकरी छोड़कर भारत  लौटा था। दिल्ली में पले-बढ़े और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में ग्रेजुएट कबीर चड्ढ़ा न्यूयॉर्क में मैक्किंजे कंपनी में बतौर कंसल्टेंट नौकरी कर रहा था  25 वर्ष के इस नौजवान की नौकरी अच्छी चल रही थी, लेकिन वह कुछ बेहतर करना चाहता था। उसके दिमाग में एक ऐसा बिजनेस करने का आइडिया पनप रहा था जिसकी मदद से वह समाज के लिए कुछ कर पाए और कमाए भी। कबीर की उम्र के नौजवानों को ऐसा विचार आना आम बात है। लेकिन कुछेक के पास ही इसे हकीकत में तब्दील करने का हौसला होता है, कबीर इन्हीं में से एक थे।    

       अमेरिका से जॉब छोड़कर वो भारत में आ गया और अपनी नानी के साथ गुडगाँव में रहने लगा।  उस दौरान  उन्होंने महसूस किया कि उनकी नानी अपनी देखभाल करने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। साथ ही उन्हें नानी का अकेलापन भी बहुत परेशान कर रहा था। इन्हीं हालातों ने कबीर को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि देशभर के बुजुर्गों को ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ रहा होगा। कुछ वक्त बीता तो कबीर की यह सोच और मजबूत होने लगी। उन्होंने देखा कि एनआरआई बच्चों या दूसरे शहर में रहने वाले बच्चों के माता-पिता के लिए यह समस्या आम थी। कबीर यह समझ चुके थे कि इन बुजुर्गों को ऐसे सहयोगी की जरूरत है जो इनकी सेहत का ख्याल रखने के साथ इनका अकेलापन भी दूर कर पाएं। वहीं अपने माता-पिता से दूर रहने वाले बच्चे भी एेसे सहयोग की तलाश में रहते हैं जो उन्हें सामाजिक और मानसिक सहायता प्रदान कर सके। उनकी इसी जरूरत में कबीर को अपना बिजनेस आइडिया मिल गया। उन्होंने सक्सेस भी हासिल की और लोग आज उन्हें प्यार से ग्रैंड मॉम्स सीईओ भी कहते हैं।
कबीर चढ्ढा ने अपनी सारी जमा पूँजी अपने नए काम में लगा दी।  शुरू में रेस्पॉन्स जरा सा हल्का रहा था लेकिन धीरे-धीरे एनसीआर और आसपास के इलाके के लोगों को इस सर्विस का महत्व समझ में आने लगा। कबीर बताते हैं कि फिलहाल वे सिर्फ उच्च आय वर्ग के लोगों को अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं जिसके लिए वे 800 से 900 रुपए प्रति घंटा लेते हैं। लेकिन मध्यम और लोअर इनकम क्लास तक अपनी सेवाएं पहुंचा पाना कबीर के लिए अब भी एक चुनौती है। दूसरी तरफ कई सोशल पहलू भी हैं जिनका सामना कबीर को करना पड़ता है, मसलन लोग उनकी सेवाओं की तुलना हाउस हेल्प से करते हैं और इनके बीच का फर्क बमुश्किल समझ पाते हैं।         
    शुरू में उन्होंने इस काम को अपना व्यापर नहीं बनाया था।  भारत में मलने वाले रेस्पॉन्स  देखकर कबीर ने कंपनी बनाने का इरादा बना लिया। `इपॉक एल्डर केयर' नाम की इस कंपनी के जरिए वे भारत के विभिन्न शहरों में रहने वाले बुजुर्गों को प्रोफेशनल होम केयर उपलब्ध करवाने लगे। शुरुआत के कुछ ही वर्षों में कंपनी के साथ 50 से ज्यादा फुल टाइम प्रोफेशनल कर्मचारी जुड़ चुके हैं जो दिल्ली-एनसीआर, मुम्बई,पुणे,  बेंगलुरु जैसे शहरों के करीब 200 कस्टमर्स की देखभाल कर रहे हैं। कबीर बताते हैं -"हमारी टीम वृद्धों को गैर-चिकित्सा सेवाएं प्रदान कर रही है जिनमें नियमित हेल्थ मॉनिटरिंग के साथ-साथ उनके साथ समय बिताना और उन्हें मानसिक रूप से प्रोत्साहन प्रदान करना शामिल है।"
   समस्याओं से घबराए बिना कबीर आगे बढ़ रहे हैं और हेल्पएज जैसे एनजीओ उनके इस जज्बे को सराह भी रहे हैं। आज `इपॉक एल्डर केयर' का टर्नओवर 2 करोड़ को पार कर चुका है और कबीर को पूरी उम्मीद है कि आने वाले पांच सालों में 5000 से 7000 वृद्धों तक अपनी सेवाएं पहुंचा पाएंगे और कंपनी का टर्नओवर 25-30 मिलियन डॉलर के स्तर पर पहुंच जाएगा। साथ ही कंपनी होमकेयर प्रदान करने के अलावा अब रिहायशी सुुविधाएं भी प्रदान कर रही है। ओल्ड एज होम की इस सुविधा में 4-5 वृद्धों को एक परिवार की तरह रखा जा रहा है और उनके किराए, खाने-पीने और घर की देखभाल भी की जा रही है।
  कबीर मानना है कि अगले कुछ सालों में भारत ने वृद्ध केयर का व्यापार बढ़ने वाला है। ४० सालों में भारत की टॉप इंडस्ट्री होगी। इस इंडस्ट्री का भारत ने सामाजिक प्रभाव ही नहीं पड़ेगा बल्कि व्यापार में भी बहुत साड़ी सम्भावनाये हैं।  
 भारत में वृद्ध सेवा कारोबार में कबीर चढ्ढा को कई वजहों अपार सम्भवाये नजर आती है। 
 १.  सबसे पहली बात ये कि भारत में दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या है।  १० करोड़ में के ह्यदा लोग ६५ साल से ऊपर है।  २०४० ई० ये संख्या दोगुनी हो जाने वाली है 
 २. बुजुर्गों को सबसे ज्यादा जिस चीज की जरूरत होती है वो किसी के साथ की।  उनकी सबसे बड़ी समस्या है अकेलापन।  
३. भारत के लोगों को विदेशों के मुकाबले अपने घर से बड़ा ही प्यार होता है। भारतीय लोग रिटायर होने के बाद अपने परिवार के साथ अपने घर में रहना चाहते है।  
 कबीर की सेवा का ही परिणाम है कि आज उनकी नानी माँ एकदम स्वस्थ है और उसके साथ रहती है।  कबीर अपनी नानी को ही अपनी प्रेरणा मानता है।  

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