Sunday, May 3, 2015

फौलादी इरादों वाली अरुणिमा सिन्हा

हाँ उस बुलंद हौसलों वाली लड़की एक नकली पैर होने के बावजूद भी वो कर दिखाया जो दोनों पैर वाले सलामत  भी बिरले ही कर पाते है।अरुणिमा सिन्हा भारत की वो जांबाज़ लड़की है-  जिसने एक नकली पैर  से एवरेस्ट को फ़तेह कर लिया है। अपराधियों द्वारा चलती ट्रेन से फेंक दिए जाने के कारण एक पैर गंवा चुकने के बावजूद अरूणिमा ने गजब के जीवट का परिचय देते हुए 21 मई 2013 को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउन्ट एवरेस्ट को फतह कर एक नया इतिहास रचते हुए ऐसा करने वाली पहली विकलांग भारतीय होने का रिकार्ड अपने नाम कर लिया। ट्रेन दुर्घटना से पूर्व उन्होने कई राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में राज्य की वॉलीबाल और फुटबॉल टीमों में प्रतिनिधित्व किया है।


  उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला अम्बेडकर नगर  फैज़ाबाद मंडल अनुभाग का एक जिला है।उसे उत्तर प्रदेश  की पूर्व मुख्यमंत्री कुमारी मायावती  के द्वारा २९ सितम्बर १९९५ मे बनाया गया था। इसका नाम भारत के संविधान  निर्मात्री सभा  के प्रारूप  समिती के अध्यक्ष डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर  के नाम पर रखा गया है।ये जिला  भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी और राजनीतिक नेता डॉ॰ राम मनोहर लोहिया  का जन्मस्थान। प्रसिद्ध गांधीवादी राजनीतिज्ञ श्री जयराम वर्मा यहाँ पैदा हुए थे।  
अम्बेडकर नगर शाहजाद-पर इलाके में एक मुहल्ला है पंडाटोला. वहीं एक छोटे-से मकान में रहने वाली अरुणिमा सिन्हा के जीवन का बस एक ही लक्ष्य थाः भारत को वॉलीबॉल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाना. छठी कक्षा से ही वे इसी जूनून के साथ पढ़ाई कर रही थीं.

समय गुजरता गया. समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर और कानून की डिग्री लेने के साथ अरुणिमा राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल खिलाड़ी के रूप में पहचान बनाने लगीं. इसी बीच 11 अप्रैल, 2011 की एक घटना ने उनकी जिंदगी ही बदल कर रख दी. 


   12 अप्रैल 2011 को लखनऊ से दिल्ली  जाते समय उसके बैग और सोने की चेन खींचने के प्रयास में कुछ अपराधियों ने बरेली  के पास  पदमवाती एक्सप्रेस से अरुणिमा को बाहर फेंक दिया था . इस हादसे में अरुणिमा का बायां पैर ट्रेन के पहियों के नीचे आ गया. पैर कटने के साथ ही पूरा शरीर लहुलुहान हो गया. अचानक मिले इस शारीरिक और मानसिक आघात ने अरुणिमा ही नहीं, पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया. पर अपने जीवन पर आए इस भीषण संकट में भी अरुणिमा ने हार नहीं मानी. जिंदगी और मौत के बीच झूलते हुए वे नई दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में चार महीने तक भर्ती रहीं.
एम्स में इलाज के दौरान उनकी जान तो बच गई, लेकिेन बायां पैर काटना पड़ा था। हॉस्पिटल में ही इलाज के  दौरान अरूणिमा को हिमालय पर फतह करने का ख्याल  आया था।  इस बारे में अरूणिमा ने बताया कि हॉस्पिटल  में इलाज के दौरान एक दिन वह अखबार पढ़ रही थी। उसमें उसने  देखा कि नोएडा का एक 17 वर्षीय अर्जुन वाजपेयी ने देश के सबसे युवा पर्वतारोही बनने का कीर्तिमान हासिल किया है। इस खबर को पढ़कर उसके  अंदर जोश भर गया। उसे  ऐसा लगा कि जब 17 साल का युवक ऐसा कर सकता है तो वह क्यों  नहीं? धीरे-धीरे उनकी इच्छा  और प्रबल होती गई।
अगस्त 2011 के अंतिम हफ्ते में जब अरुणिमा को एम्स से छुट्टी मिली तो वे अपने साथ हुए हादसे को भूलकर एक बेहद कठिन और असंभव-से प्रतीत होने वाले लक्ष्य को साथ लेकर अस्पताल से बाहर निकलीं. यह लक्ष्य था विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट को फतह करने का. अब तक कोई भी विकलांग ऐसा नहीं कर पाया था. कटा हुआ बायां पैर, दाएं पैर की हड्डियों में पड़ी लोहे की छड़ और शरीर पर जख्मों के निशान के साथ एम्स से बाहर आते ही अरुणिमा सीधे अपने घर न आकर एवरेस्ट पर चढऩे वाली पहली भारतीय महिला पर्वतारोही बछेंद्री पॉल से मिलने जमशेदपुर जा पहुंचीं. 
पॉल ने पहले तो अरुणिमा की हालत देखते हुए उन्हें आराम करने की सलाह दी;लेकिन उनके बुलंद हौसलों के आगे आखिर वे भी हार मान गईं. अरुणिमा ने पॉल की निगरानी में नेपाल से लेकर लेह, लद्दाख में पर्वतारोहण के गुर सीखे. उत्तराखंड में  ` नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग'और `टाटा स्टील ऑफ एडवेंचर फाउंडेशन` से प्रशिक्षण लेने के बाद १  अप्रैल,२०१३  ई०  को उन्होंने एवरेस्ट की चढ़ाई शुरू की. ५३  दिनों की बेहद दुश्वार पहाड़ी चढ़ाई के बाद आखिरकार २१  मई को वे एवरेस्ट की चोटी फतह करने वाली विश्व की पहली महिला विकलांग पर्वतारोही बन गईं. वे यहीं नहीं रुकीं. युवाओं और जीवन में किसी भी प्रकार के अभाव के चलते निराशापूर्ण जीवन जी रहे लोगों में प्रेरणा और उत्साह जगाने के लिए उन्होंने अब दुनिया के सभी सातों महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटियों को लांघने का लक्ष्य तय किया है. इस क्रम में वे अब तक अफ्रीका की किलिमंजारो और यूरोप की एलब्रुस चोटी पर तिरंगा फहरा चुकी हैं.

अरुणिमा ने केवल पर्वतारोहण ही नहीं, आर्टीफीशियल ब्लेड रनिंग में भी अपनी धाक जमाई है. इसी वर्ष चेन्नै में हुए ओपन नेशनल गेम्स (पैरा) में उन्होंने 100 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता. इस बीच समय निकाल कर वे उन्नाव के बेथर गांव में शहीद चंद्रशेखर आजाद खेल अकादमी और प्रोस्थेटिक लिंब रिसर्च सेंटर के रूप में अपने सपने को आकार देने में भी जुटी हैं.  
अरुणिमा इस वक़्त  केंद्रीय अद्योगिक सुरक्षा बल (सी आई एस एफ) में हेड कांस्टेबल के पद पर 2012 से कार्यरत हैं। अरुणिमा भारत के उन जुझारू नागरिकों में से है जिसने अपने कमी को नजरअंदाज करके बस आने टारगेट पर नज़र टिकाकर राखी और आखिरकार अपनी मंज़िल को हासिल कर लिया। साथ ही भारत के उन विशिष्ठ शारीरिक योग्यता ( विकलांग क्यों कहु? ) वाले लोगों को इस बात की सीख देती है की वो खुद को कमतर न समझकर अपने मकसद पर फोकस करें। कामयाबी किसी सबलता शरीर की गुलाम नहीं  होती वो तो मजबूत इरादों जो  अथक मेहनत की शैदाई होती है। ये अरुणिमा ने एवरेस्ट को फतेह करके दिया।  


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