Monday, May 4, 2015

संगीत ही उनका धर्म था

"अमा तुम गाली दो बेशक पर सुर में तो दो....गुस्सा आता है बस उस पर जो बेसुरी बात करता है.....पैसा खर्च करोगे तो खत्म हो जायेगा पर सुर को खर्च करके देखिये महाराज...कभी खत्म नही होगा...." - एक इंटरव्यू में  उस्ताद बिस्मिल्लाह खां  में कुछ ऐसा ही कहा था।  

कहना न होगा की संगीत खां की रगों ने लगो नहीं राग गर्दिश करते है। 
सादगी उनके जीवन का बड़ा ही  महत्वपूर्ण अंग  हुआ करता था।

संगीत को उन्होंने ताउम्र अपनी इबादत  समझा। कभी  उसे अपना   

 व्यापार नहीं बनाया।  उनके बराबर के ज्यादातर कलाकार कलाकारों 

खूब पैसा कमाया मगर खां साहब  जिंदगी भर मुफलिसी में रहे  मस्त 

रहे।  कई लोग उनके पास आते थे और उनसे धुन ले जाते थे और खां 
साहब उन्हें में अपनी  धुन दे दिया करते थे।  





पंडित जसराज का मानना है- "उनके जैसा महान संगीतकार न पैदा हुआ है और न कभी होगा। मैं सन् 1946 से उनसे मिलता रहा हूं। पहली बार उनका संगीत सुनकर मैं पागल सा हो गया था। मुझे पता नहीं था कि संगीत इतना अच्छा भी हो सकता है। उनके संगीत में मदमस्त करने की कला थी, वह मिठास थी जो बहुत ही कम लोगों के संगीत में सुनने को मिलती है। मैं उनके बारे में जितना भी कहूँगा बहुत कम होगा क्योंकि वो एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने कभी दिखावे में यकीन नहीं किया। वो हमेशा सबको अच्छी राह दिखाते थे और बताते थे। वो ऑल इंडिया रेडियो को बहुत मानते थे और हमेशा कहा करते कि मुझे ऑल इंडिया रेडियो ने ही बनाया है। वो एक ऐसे फरिश्ते थे जो धरती पर बार-बार जन्म नहीं लेते हैं और जब जन्म लेते हैं तो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है।"

बाँसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया का कहना है- "बिस्मिल्ला खां साहब भारत की एक महान विभूति थे, अगर हम किसी संत संगीतकार को जानते है तो वो हैं बिस्मिल्ला खा़न साहब। बचपन से ही उनको सुनता और देखता आ रहा हूं और उनका आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहा। वो हमें दिशा दिखाकर चले गए, लेकिन वो कभी हमसे अलग नहीं हो सकते हैं। उनका संगीत हमेशा हमारे साथ रहेगा। उनके मार्गदर्शन पर अनेक कलाकार चल रहे हैं। शहनाई को उन्होंने एक नई पहचान दी। शास्त्रीय संगीत में उन्होंने शहनाई को जगह दिलाई इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। यह उनकी मेहनत और शहनाई के प्रति समर्पण ही था कि आज शहनाई को भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में सुना और सराहा जा रहा है। उनकी कमी तो हमेशा ही रहेगी। मेरा मानना है कि उनका निधन नहीं हो सकता क्योंकि वो हमारी आत्मा में इस कदर रचे बसे हुए हैं कि उनको अलग करना नामुमकिन है।"
   
      बिस्मिल्ला खाँ का जन्म बिहारी मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खाँ और मिट्ठन बाई के यहाँ बिहार के डुमराँव के ठठेरी बाजार के एक किराए के मकान में हुआ था। उनके बचपन का नाम क़मरुद्दीन था। वे अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे।: चूँकि उनके बड़े भाई का नाम शमशुद्दीन था अत: उनके दादा रसूल बख्श ने कहा-"बिस्मिल्लाह!" जिसका मतलब था "अच्छी शुरुआत! या श्रीगणेश" अत: घर वालों ने यही नाम रख दिया। और आगे चलकर वे "बिस्मिल्ला खाँ" के नाम से मशहूर हुए।उनके खानदान के लोग दरवारी राग बजाने में माहिर थे जो बिहार की भोजपुर रियासत  में अपने संगीत का हुनर दिखाने के लिये अक्सर जाया करते थे। उनके पिता ने बिहार की डुमराँव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरवार में शहनाई वादन का हुनर दिखाया।
२१ मार्च १९१६ में जन्में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का नाम उनके अम्मा वलीद ने कमरुद्दीन रखा था, पर जब उनके दादा ने नवजात को देखा तो दुआ में हाथ उठाकर बस यही कहा - बिस्मिल्लाह। शायद उनकी छठी इंद्री ने ये इशारा दे दिया था कि उनके घर एक कोहेनूर जन्मा है।  उनके वलीद पैगम्बर खान उन दिनों भोजपुर के राजदरबार में शहनाई वादक थे।   साल की उम्र में जब वो बनारस अपने मामा के घर गए तो पहली बार अपने मामा और पहले गुरु अली बक्स विलायतु को वाराणसी के काशी विश्वनाथ मन्दिर में शहनाई वादन करते देख बालक हैरान रह गया।   नन्हे भांजे में विलायतु साहब को जैसे उनका सबसे प्रिये शिष्य मिल गया था।  १९३० ई०  से लेकर १९४० ई०   के बीच उन्होंने उस्ताद विलायतु के साथ बहुत से मंचों पर संगत की।  १४ साल की उम्र में अलाहाबाद संगीत सम्मलेन में उन्होंने पहली बंदिश बजायी।   उत्तर प्रदेश के बहुत से लोक संगीत परम्पराओं जैसे ठुमरी, चैती, कजरी, सावनी आदि को उन्होने एक नए रूप में श्रोताओं के सामने रखा और उनके फन के चर्चे मशहूर होने लगे.१९३७ ई०  में कलकत्ता में हुए अखिल भारतीय संगीत कांफ्रेंस में पहली बार शहनायी गूंजी इतने बड़े स्तर पर, और संगीत प्रेमी कायल हो गए उस्ताद की उस्तादगी पर।  

    हालाँकि  बिस्मिल्ला खाँ शिया  मुसलमान थे फिर भी वे अन्य हिन्दुस्तानी संगीतकारों की भाँति धार्मिक रीति रिवाजों के प्रबल पक्षधर थे और हिन्दू   देवी-देवता में कोई फ़र्क नहीं समझते थे। वे ज्ञान की देवी सारस्वत  के सच्चे आराधक थे। वे काशी  के बाबा विश्वनाथ मन्दिर में जाकर तो शहनाई बजाते ही थे इसके अलावा वो गंगा  किनारे बैठकर घण्टों रियाज भी किया करते थे। उनकी अपनी मान्यता थी कि उनके ऐसा करने से गंगा मइया प्रसन्न होती हैं।  
खां  साहब के  ऊपर लिखी किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है-
‘खां कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है. संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता। '
 किताब में मिश्र ने बनारस से खान के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है. उन्होंने लिखा है-
‘खान कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है. वह जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही.’
१९३८ में लखनऊ में आल इंडिया रेडियो की शुरवात हुई. जहाँ से नियमित रूप से उस्ताद का वादन श्रोताओं तक पहुँचने लगा। अगस्त १९४७ को वो पहले साजिन्दे बने जिसे आजाद भारत की अवाम को अपनी शहनाई वादन से मंत्र्मुग्द किया। ब्रॉडकास्ट लालकिले से हुआ था, जहाँ उन्हें सुन रहे थे ख़ुद महात्मा गाँधी भी और जहाँ उनके वादन के तुंरत बाद पंडित नेहरू ने अपना मशहूर संबोधन दिया था आजाद देश की जनता के नाम।   तब से अब तक जाने कितने ही एतिहासिक समारोहों और जाने कितने ही रास्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में इस महान फनकार ने अपने अद्भुत हुनर से सुनने वालों सम्मोहित किया।
    १९४७ ई० में भारत आज़ाद हुआ तो आज़ादी के जश्न में खां साहब की शहनाई के साथ मनाया गया।१९४७ ई० में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल १५  अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद खां साहब  का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी।  खां साहब  ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूंज से लोगों को मोहित किया. अपने जीवन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं। 
  खां साहब ने दुनिया को लाइव बांसुरी के संगीत से नहीं मोहा था बल्कि फिल्मों में में भी अपना जौहर दिखाया।  
खान ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी।  आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरीं।  
खां साहब के संगीत के सफर को याद करते हुए पंडित मोहनदेव कहते हैं कि भारत रत्न, पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण जैसे अलंकारों और पुरस्कारों से सम्मानित खां साहब  का संगीत उनके दुनिया से जाने के बाद भी अमर है। खां साहब  ने अपने लिए वह मुकाम बनाया है कि जब-जब शहनाई का नाम लिया जाता है उनका नाम सबसे पहले आता है। एक तरह से शहनाई और बिस्मिल्ला एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं।  
 खान साहब के शैदाइयों में देश के पुराने नेता या लोग ही नहीं थे आधुनिक काल के नेता और लोग भी हैं।  उस्ताद की शहनाई की धुन को सुनने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हमेशा उन्हें निमंत्रण देकर बुलाती थीं।राजीव गांधी ने भी  खां साहब को निमंत्रण देकर बुलाया था और सोनिया गांधी के साथ घंटों बैठकर उनकी शहनाई को सुना था। वहीं, बाला साहब ठाकरे को खान साहब की शहनाई की धुन काफी पसंद थी। वह अक्सर उनसे 'बधैया'  सुना करते थे।
    बिस्मिल्ला ख़ान ने एक संगीतज्ञ के रूप में जो कुछ कमाया था वो या तो लोगों की मदद में ख़र्च हो गया या अपने बड़े परिवार के भरण-पोषण में। एक समय ऐसा आया जब वो आर्थिक रूप से मुश्किल में गए थे, तब सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना पड़ा था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन उस्ताद की यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई और २१ अगस्त, २००६ ई०   को ९०  वर्ष की आयु में इनका देहावसान हो गया।



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