विक्रम अंबालाल साराभाई भारत के प्रमुख वैज्ञानिक थे-जिन्हे भारत का ‘अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक’ माना जाता है। इन्होंने ८६ वैज्ञानिक शोध पत्र लिखा एवं ४०
संस्थान खोला। उन्हें विज्ञानं एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में सन १९६६ ई० में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।डॉ॰ विक्रम साराभाई के नाम को भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम से अलग नहीं किया जा
सकता। यह जगप्रसिद्ध है कि वह विक्रम साराभाई ही थे जिन्होंने अंतरिक्ष अनुसन्धान के क्षेत्र में भारत को अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर स्थान दिलाया;लेकिन इसके साथ-साथ उन्होंने अन्य क्षेत्रों जैसे वस्त्र, भेषज, आणविक ऊर्जा,
इलेक्ट्रानिक्स
और अन्य अनेक क्षेत्रों में भी बराबर का योगदान किया।
डॉ॰ साराभाई के व्यक्तित्व का सर्वाधिक उल्लेखनीय पहलू उनकी रूचि की सीमा और
विस्तार तथा ऐसे तौर-तरीके थे जिनमें उन्होंने अपने विचारों को संस्थाओं में
परिवर्तित किया। सृजनशील वैज्ञानिक, सफल और दूरदर्शी उद्योगपति, उच्च कोटि के प्रवर्तक,
महान संस्था
निर्माता,
अलग किस्म के
शिक्षाविद,
कला पारखी, सामाजिक परिवर्तन के ठेकेदार, अग्रणी प्रबंध प्रशिक्षक आदि जैसी अनेक
विशेषताएं उनके व्यक्तित्व में समाहित थीं। उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी
कि वे एक ऐसे उच्च कोटि के इन्सान थे जिसके मन में दूसरों के प्रति असाधारण
सहानुभूति थी। वह एक ऐसे व्यक्ति थे कि जो भी उनके संपर्क में आता, उनसे प्रभावित हुए बिना न रहता। वे जिनके साथ
भी बातचीत करते,
उनके साथ फौरी
तौर पर व्यक्तिगत सौहार्द स्थापित कर लेते थे। ऐसा इसलिए संभव हो पाता था क्योंकि
वे लोगों के हृदय में अपने लिए आदर और विश्वास की जगह बना लेते थे और उन पर अपनी
ईमानदारी की छाप छोड़ जाते थे।
डॉ॰ विक्रम साराभाई का जन्म अहमदाबाद में 12 अगस्त 1919 को एक समृध्द जैन परिवार
में हुआ। अहमदाबाद में उनका पैत्रिक घर में उनके बचपन के समय सभी क्षेत्रों से
जुड़े महत्वपूर्ण लोग आया करते थे। इसका साराभाई के व्यक्तित्व के विकास पर
महत्वपूर्ण असर पड़ा। उनके पिता का नाम श्री अम्बालाल साराभाई और माता का नाम
श्रीमती सरला साराभाई था। विक्रम साराभाई की प्रारम्भिक शिक्षा उनकी माता सरला
साराभाई द्वारा मैडम मारिया मोन्टेसरी की तरह शुरू किए गए पारिवारिक स्कूल में
हुई। गुजरात कॉलेज से इंटरमीडिएट तक विज्ञान की शिक्षा पूरी करने के बाद वे 1937
में कैम्ब्रिज (इंग्लैंड) चले गए जहां 1940 में प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपोज
डिग्री प्राप्त की। द्वितीय विश्व युध्द शुरू होने पर वे भारत लौट आए और बंगलौर
स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान में नौकरी करने लगे जहां वह सी. वी. रमण के निरीक्षण
में कॉसमिक रेज़ पर अनुसंधान करने लगे।
उन्होंने अपना पहला अनुसंधान लेख न्न टाइम डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ कास्मिक रेज़ न्न
भारतीय विज्ञान अकादमी की कार्यविवरणिका में प्रकाशित किया। वर्ष 1940-45 की अवधि
के दौरान कॉस्मिक रेज़ पर साराभाई के अनुसंधान कार्य में बंगलौर और कश्मीर-हिमालय
में उच्च स्तरीय केन्द्र के गेइजर-मूलर गणकों पर कॉस्मिक रेज़ के समय-रूपांतरणों
का अध्ययन शामिल था। द्वितीय विश्व युध्द की समाप्ति पर वे कॉस्मिक रे भौतिक
विज्ञान के क्षेत्र में अपनी डाक्ट्रेट पूरी करने के लिए कैम्ब्रिज लौट गए। 1947
में उष्णकटीबंधीय अक्षांक्ष (ट्रॉपीकल लैटीच्यूड्स) में कॉस्मिक रे पर अपने
शोधग्रंथ के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उन्हें डाक्ट्ररेट की उपाधि से
सम्मानित किया गया। इसके बाद वे भारत लौट आए और यहां आ कर उन्होंने कॉस्मिक रे
भौतिक विज्ञान पर अपना अनुसंधान कार्य जारी रखा। भारत में उन्होंने अंतर-भूमंडलीय
अंतरिक्ष,
सौर-भूमध्यरेखीय
संबंध और भू-चुम्बकत्व पर अध्ययन किया।
किसी ने ठीक ही कहा है सपने ही वो पंख है जिनके सहारे इंसान कामयाबी की उड़ान की कोशिश करता है। डॉ॰ साराभाई एक स्वप्नद्रष्टा थे और उनमें कठोर परिश्रम की असाधारण क्षमता थी।
फ्रांसीसी भौतिक वैज्ञानिक पीएरे क्यूरी जिन्होंने अपनी पत्नी मैरी
क्यूरी के साथ मिलकर पोलोनियम और रेडियम का आविष्कार किया था, के अनुसार डॉ॰ साराभाई का उद्देश्य जीवन को
स्वप्न बनाना और उस स्वप्न को वास्तविक रूप देना था। इसके अलावा डॉ॰ साराभाई ने
अन्य अनेक लोगों को स्वप्न देखना और उस स्वप्न को वास्तविक बनाने के लिए काम करना
सिखाया। भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की सफलता इसका प्रमाण है।
डॉ॰ साराभाई में एक प्रवर्तक वैज्ञानिक, भविष्य द्रष्टा,
औद्योगिक
प्रबंधक और देश के आर्थिक,
शैक्षिक और
सामाजिक उत्थान के लिए संस्थाओं के परिकाल्पनिक निर्माता का अद्भुत संयोजन था।
उनमें अर्थशास्त्र और प्रबंध कौशल की अद्वितीय सूझ थी। उन्होंने किसी समस्या को कभी
कम कर के नहीं आंका। उनका अधिक समय उनकी अनुसंधान गतिविधियों में गुजरा और
उन्होंने अपनी असामयिक मृत्यु तक अनुसंधान का निरीक्षण करना जारी रखा। उनके
निरीक्षण में १९ लोगों ने अपनी डाक्ट्रेट का कार्य सम्पन्न किया। डॉ॰ साराभाई ने
स्वतंत्र रूप से और अपने सहयोगियों के साथ मिलकर राष्ट्रीय पत्रिकाओं में ८६ अनुसंधान लेख लिखे।
कोई भी व्यक्ति बिना किसी डर या हीन भावना के डॉ॰ साराभाई से मिल सकता था, फिर चाहे संगठन में उसका कोई भी पद क्यों न
रहा हो। साराभाई उसे सदा बैठने के लिए कहते। वह बराबरी के स्तर पर उनसे बातचीत कर
सकता था। वे व्यक्तिविशेष को सम्मान देने में विश्वास करते थे और इस मर्यादा को
उन्होंने सदा बनाये रखने का प्रयास किया। वे सदा चीजों को बेहतर और कुशल तरीके से
करने के बारे में सोचते रहते थे। उन्होंने जो भी किया उसे क्रिएटिव तरीके से किया।
युवाओं के प्रति उनका विशेष लगाव रहता था। डॉ॰ साराभाई को युवा वर्ग की
क्षमताओं में अत्यधिक विश्वास था। यही कारण था कि वे उन्हें अवसर और स्वतंत्रता
प्रदान करने के लिए सदा तैयार रहते थे।
डॉ॰ साराभाई एक महान संस्थान निर्माता थे।अहमदाबाद में भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला की स्थापना में डॉ. साराभाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई: केम्ब्रिज से १९४७ ई० में आजाद भारत में वापसी के बाद, उन्होंने अपने परिवार और मित्रों द्वारा नियंत्रित धर्मार्थ न्यासों को अपने निवास के पास अहमदाबाद में अनुसंधान संस्थान को धन देने के लिए राज़ी किया। इस प्रकार ११ नवंबर, १९४७ ई० को अहमदाबाद में डॉ॰ साराभाई ने भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला की स्थापना की। उस समय उनकी उम्र केवल २८ वर्ष थी। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी संख्या
में संस्थान स्थापित करने में अपना सहयोग दिया। साराभाई ने सबसे पहले अहमदाबाद
वस्त्र उद्योग की अनुसंधान एसोसिएशन के गठन में अपना सहयोग प्रदान
किया। यह कार्य उन्होंने कैम्ब्रिज से कॉस्मिक रे भौतिकी में डाक्ट्रेट की उपाधि
प्राप्त कर लौटने के तत्काल बाद हाथ में लिया। उन्होंने वस्त्र प्रौद्योगिकी में
कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था। एटीआईआरए का गठन भारत में वस्त्र उद्योग के
आधुनिकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। उस समय कपड़े की अधिकांश मिलों में
गुणवत्ता नियंत्रण की कोई तकनीक नहीं थी। डॉ॰ साराभाई ने विभिन्न समूहों और
विभिन्न प्रक्रियाओं के बीच परस्पर विचार-विमर्श के अवसर उपलब्ध कराए। डॉ॰ साराभाई
द्वारा स्थापित कुछ सर्वाधिक जानी-मानी संस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं- भौतिकी
अनुसंधान प्रयोगशाला , अहमदाबाद;
भारतीय प्रबंधन
संस्थान,अहमदाबाद;
सामुदायिक
विज्ञान केन्द्र;
अहमदाबाद, दर्पण अकादमी फॉर परफार्मिंग आर्ट्स , अहमदाबाद; विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, तिरूवनंतपुरम;
स्पेस
एप्लीकेशन्स सेंटर,
अहमदाबाद; फास्टर ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर, कलपक्कम;
वैरीएबल एनर्जी
साईक्लोट्रोन प्रोजक्ट,
कोलकाता; भारतीय इलेक्ट्रानिक निगम लिमिटेड ,
हैदराबाद और भारतीय यूरेनियम निगम लिमिटेड , जादुगुडा, बिहार।
डॉ॰ होमी जे. भाभा की जनवरी १९६६ ई० में मृत्यु के बाद डॉ॰ साराभाई को परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष का कार्यभार संभालने को कहा गया। डॉ॰ साराभाई ने सामाजिक और आर्थिक विकास की विभिन्न गतिविधियों के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में छिपी हुई व्यापक क्षमताओं को पहचान लिया था। इन गतिविधियों में संचार, मौसम विज्ञान मौसम संबंधी भविष्यवाणी और प्राकृतिक संसाधनों के लिए अन्वेषण आदि शामिल हैं। डॉ॰ साराभाई द्वारा स्थापित भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद ने अंतरिक्ष विज्ञान में और बाद में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में अनुसंधान का पथ प्रदर्शन किया। साराभाई ने देश की रॉकेट प्रौद्योगिकी को भी आगे बढाया। उन्होंने भारत में उपग्रह टेलीविजन प्रसारण के विकास में भी अग्रणी भूमिका निभाई।
डॉ॰ होमी जे. भाभा की जनवरी १९६६ ई० में मृत्यु के बाद डॉ॰ साराभाई को परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष का कार्यभार संभालने को कहा गया। डॉ॰ साराभाई ने सामाजिक और आर्थिक विकास की विभिन्न गतिविधियों के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में छिपी हुई व्यापक क्षमताओं को पहचान लिया था। इन गतिविधियों में संचार, मौसम विज्ञान मौसम संबंधी भविष्यवाणी और प्राकृतिक संसाधनों के लिए अन्वेषण आदि शामिल हैं। डॉ॰ साराभाई द्वारा स्थापित भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद ने अंतरिक्ष विज्ञान में और बाद में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में अनुसंधान का पथ प्रदर्शन किया। साराभाई ने देश की रॉकेट प्रौद्योगिकी को भी आगे बढाया। उन्होंने भारत में उपग्रह टेलीविजन प्रसारण के विकास में भी अग्रणी भूमिका निभाई।
डॉ॰ साराभाई भारत में भेषज(Pharmacological) उद्योग के भी अग्रदूत थे। वे भेषज (Pharmacological)उद्योग से जुड़े
उन चंद लोगों में से थे जिन्होंने इस बात को पहचाना कि गुणवत्ता के उच्च्तम मानक
स्थापित किए जाने चाहिए और उन्हें हर हालत में बनाए रखा जाना चाहिए। यह साराभाई ही
थे जिन्होंने भेषज(Pharmacological) उद्योग में इलेक्ट्रानिक आंकड़ा प्रसंस्करण और संचालन अनुसंधान
तकनीकों को लागू किया। उन्होंने भारत के भेषज (Pharmacological)उद्योग को आत्मनिर्भर बनाने और अनेक
दवाइयों और उपकरणों को देश में ही बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साराभाई देश
में विज्ञान की शिक्षा की स्थिति के बारे में बहुत चिन्तित थे। इस स्थिति में
सुधार लाने के लिए उन्होंने सामुदायिक विज्ञान केन्द्र की स्थापना की थी।
डॉ॰ साराभाई सांस्कृतिक गतिविधियों में भी गहरी रूचि रखते थे। वे संगीत, फोटोग्राफी, पुरातत्व,
ललित कलाओं और
अन्य अनेक क्षेत्रों से जुड़े रहे। अपनी पत्नी मृणालिनी के साथ मिलकर उन्होंने
मंचन कलाओं की संस्था दर्पण का गठन किया। उनकी बेटी मल्लिका साराभाई भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी की सुप्रसिध्द नृत्यांग्ना थीं ।
डॉ॰ साराभाई का कोवलम,
तिरूवनंतपुरम
(केरल) में ३० दिसम्बर १९७१ ई० को देहांत हो गया। इस महान वैज्ञानिक के सम्मान में तिरुवचनंतपुरम में स्थापित थुम्बा इक्वेटोरियल रॉकेट
लाउंचिंग स्टेशन और उससे जुड़े अंतरिक्ष संस्थाओं का नाम बदल कर विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र रख दिया गया। बाद में यह भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान संगठन के एक प्रमुख अंतरिक्ष अनुसंधान
केन्द्र के रूप में उभरा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना उनकी महान उपलब्धियों में एक थी। रूसी स्पुतनिक के प्रमोचन के बाद उन्होंने भारत जैसे विकासशील देश के लिए अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व के बारे में सरकार को राज़ी किया। डॉ. साराभाई ने अपने उद्धरण में अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व पर जोर दिया।-"ऐसे
कुछ
लोग
हैं,
जो
विकासशील
राष्ट्रों
में
अंतरिक्ष
गतिविधियों
की
प्रासंगिकता
पर
सवाल
उठाते
हैं।
हमारे
सामने
उद्देश्य
की
कोई
अस्पष्टता
नहीं
है।
हम चन्द्रमा या ग्रहों गवेषणा या मानव सहित अंतरिक्ष-उड़ानों में आर्थिक रूप से उन्नत राष्ट्रों के साथ प्रतिस्पर्धा की कोई कल्पना नहीं कर रहें हैं, लेकिन हम आश्वस्त हैं कि अगर हमें राष्ट्रीय स्तर पर और राष्ट्रों के समुदाय में कोई सार्थक भूमिका निभानी है, तो हमें मानव और समाज की वास्तविक समस्याओं के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियों को लागू करने में किसी से पीछे नहीं रहना चाहिए।"
१९७४ ई० में सिडनी
स्थित अंतर्राष्ट्रीय खगोल विज्ञान संघ ने निर्णय लिया कि 'सी ऑफ सेरेनिटी' पर स्थित बेसल नामक मून क्रेटर अब साराभाई
क्रेटर के नाम से जाना जाएगा।
भारत में विज्ञानं और उद्दोग जगत में उनके खास योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें `शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार' ,'पद्मभूषण' और मरणोपरांत उन्हें `पद्मविभूषण(१९७२ ई० में ) पुरस्कारों से विभूषित किया।
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