Friday, January 21, 2011

love diary

अध्याय-१ 
वो मेरी जिन्दगी में जबरन आये थे . मेरी बगैर मर्जी के उन्होंने मेरे घर में एंट्री ली और फिर मेरी जिन्दगी का हिस्सा बन गए. ना केवल मेरी जिन्दगी का हिस्सा बन हाय बल्कि मेरी  हर चीज पर भी कब्ज़ा जमा लिया.
मुझे उनकी सूरत से नफरत-सी थी मगर वो बार- बार मेरे घर आते थे. घंटो-घंटो मेरे घर पर बैठे रहते थे मुझे उन्हें चाय भी सर्व  करनी  पड़ती थी.
मैं  सोच रही थी कि  उस आदमी का अपने घर पर आना बंद कैसे करूं?  तो वो मेरे घर में ही आकर रहने लगे. पहले उन्हें चाय सर्व करनी पड़ती थी अब तो उन्हें खाना भी देना पड़ता था. मैं कलप-कलपकर सब करती थी. दुआ करती थी उनके साथ  कहीं कुछ ऐसा हो जाये कि फिर उनके कदम हमारे घर में ना पड़ें.
मैं उन्हें अपने घर से दूर करना चाहती थी कि वो मेरी जिन्दगी पर ही काबिज हो गए. रिजल्ट ये है था कि १८ जून को मैं अपनी सुहागसेज  पर बैठी  उनके आने का इंतजार कर रही थी.
अध्याय-
पहली बार मेरा मतलब तब पड़ा था जब मैं सोलह साल की थी. मैंने इलेवंथ क्लास तभी पास की थी और समर वेकेशन शुरू हो चुके थे. मेरे पापा स्वर्गीय मदनलाल शर्मा ने उस शनिवार मुझसे वाद किया था कि वो उस दिन मुझे शोपिंग करवाकर लायेंगे. रविवार को मुझे सुबह ही मेरी ननसाल ले जायेंगे.
मैं उस दिन डांस क्लास से घर लौटते समय ही घर के नौकरानी शबनम आंटी को गीजर ऑन कर देने के लिए कह दिया था. शबनम आंटी ने वही  किया भी. मैं घर आते ही बाथरूम में घुस गयी. नहाई और फ्रेश कपडे पहन लिए. मुझे पता था जब तक मैं तैयार होती पापा घर पर आ जाने वाले थे. शाम के पांच बजे का टाइम मैंने पापा को दे रखा था. ठीक पांच बजे मैं रेडी हो गयी. मगर पापा नहीं आये. दस-पन्द्रह मिनट कि देर हो सकती थी-जो नॉर्मल बात थी.शबनम आंटी ने मेरे कमरे में आकर पूछा-"बेबी, जूश लेकर आऊँ?"
"नहीं आंटी"-मैंने व्यस्त भाव से बैड पर बैठे-बैठे सामानों कि लिस्ट चैक करते हुए कहा-"रहने दो."
तब शबनम आंटी कि उम्र चालीस साल थी.हट्टी-कट्टी, मजबूत काया शबनम आंटी ५'५" कद की  महिला हैं . मेरी ममा तब गुजर गयी थी जब मैं दस साल की  थी. पापा ने दूसरी शादी नहीं की और शबनम आंटी ने मुझे ममा की कमी का अहसास नहीं होने दिया. वो पांचवी पास बताती थी खुद को- लेकिन अक्षर को जोडकर तक  उन्हें नहीं आता था. उसके बावजूद उन्हें टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने कि आदत है. वैसे ज्यादातर वो अंग्रेजी कि टांग तोडती हैं, पर जब गंभीर होती है तो हिंदी-उर्दू में बात करती है.
शबनम आंटी ने वात्सल्यपूर्ण भाव से पूछा-" मगर बेबी, आपने दोपहर में भी डिनर ठीक से नहीं किया था."
"डिनर नहीं, आंटी"-मैं मुस्कुराई -" दोपहर को लंच होता है."
" ह-ह-हाँ-हाँ, वो ही तो बोली थी मैं."- तुरंत उन्होंने बात बदली-" जूश पीना है या नहीं? मैं ला रही हूँ बनाना का लाऊँ या मौसमी का ?"
"बनाना का शेक होता है,आंटी"- मैंने सुधार किया.
" अरे वाह."- वो तमक कर बोली-" कल तो जूश निकलवाकर पिया था. शेक कब से बनने लगा उसका ?"
" कल तो तरबूज का जूस पिया था."-मैं बडबड़ाई. 
" वाही तो...फिर तरबूज का शेक कब से बनने लगा?"
" ohhh godddd"- मैंने माथा पीट लिया -" just get along.आप तो मेरा दिमाग ख़राब कर देंगीअभी मुझे बस अपना काम करने  दो."
मैं समझ गयी थी. वो बनाना को केला नहीं तरबूज समझ रही थी. तुर्रा ये था कि वो ही वो मुझे भी समझाना चाहती थी. 
वो बडबडाती मैं लिस्ट चैक करने में जुट गयी.लिस्ट में क्या-क्या सामान और एड करना था मैं ये तय करने लगी.जो कुछ भूल गयी थी उसे याद करने लगी. मेरा घ्यान बाहर की  तरफ भी था ताकि पाप की  कार के इंजन का शोर सुन सकूं और मुझे उनकी आमद कि खबर हो जाये. मेरा काम ख़त्म हो गया. मगर पापा की  कार का शोर मेरे कानों में नहीं पड़ा. 
मैंने बेडरूम में लगी दीवार घडी को लुक दी. उसमे साढे पांच से ऊपर हो गए थे. मैं जरा बेचैन हो गयी. मुझे लग कही पापा भूल तो नहीं गए थे.मैंने पापा का फोन ट्राई किया तो  वो स्विच ऑफ मिला. मैंने पापा का ऑफिस का नम्बर मिलाया. बैल गयी. कॉल रिसीव की गयी. मेरे कानों में पापा के रिसेप्सनिस्ट की  मधुर आवाज कि जगह पर खुश्क आवाज मेरे कान में पड़ी-" हैलो" 
"पा को फोन दो"-मैंने उसे पूरी तरह से उसे नजरअन्दाज् करते हुए जरा उग्द्वेलित स्वर में कहा.
" कौन  पा "-पूछा गया 
" मेरे पा , और कौन?"-मैंने अधिकार पूर्ण भाव से कहा 
" मै`म आपको किससे बात करनी है?"- फिर पूछा गया 
" ohhhhhhhh shut-up"- मैंने भन्नाकर कहा-" मैना कहा ना मुझे पा से बात करनी है.उन्हें फोन दो और उनसे कहो कि पलक बात करना चाहती है."
" रोंग नम्बर मै`म"-कहकर रिसीवर रख दिया गया. 
गुस्से में मेरे दिमाग में तंदूर जलने लगे. उनकी तपिश मेरे को भी लाल कर दिया था. मेरे दिल में ये आया काश वो बदतमीज मेरे सामने होता तो मैं वही फोन उठाकर  उसके सिर पर दे मारती.   
***
सवा छ: बजे पापा घर वापिस आ गए. पापा- यानि भारत के मशहूर प्रकाशक श्री मदनलाल शर्म, कुंतल भर के भारी भरकम बदन वाले, पौने छ: फीट कद के शख्स थे. सांवला रंग. सिर के आधे बाल गायब थे. डबल ठुड्डी वाले चलेँ शेव्ड चेहरे पर  वो हमेशा ही गोल्डन फ्रेम वाला चश्मा लगाते थे जब वो आये तो मैं उस समय ड्राईंग हॉल  में ही थी. पापा को देखते ही मैं फट-सी पड़ी-" पा, आप कहाँ थे अब तक ? आपको याद है ना आपको शार्प फाइव ओ`क्लोक  पर आ जाना था और अब सवा छ: बजे है"
" सॉरी माय चाईल्ड"-पापा ने लाड से अपनी बाँहें फैला दीं. मैं दौड़ती हुई पापा के सीने से लिपट गयी. पापा ने अपनी मोटी-मोटी बाँहें   मेरे गिर्द लपेट दीं. पापा ने वात्सल्यपूर्ण भाव से मेरा सिर सहलाते हुए खेद प्रकट किया-"  i was bussy. चार बजे एक पार्टी अचानक बिना टाइम लिए आ गयी थी. उसी के साथ वक्त लग गया था."
" आपको पता है मैंने ऑफिस फोन किया था."- मैंने पापा के सीने  से लिपटे-लिपटे ही बोली-" और पता नहीं वो कौन बदतमीज था उसने आपको फोन नहीं  दिया."
" क्या?"-मैंने पापा के चेहरे पर गुस्से की  रिएक्सन देखी-"कौन था?"
" i dont know, pa"-मैंने मासूमियत से कहा-"बट, बड़ा ही बदतमीज था. मैंने कई बार कहा` आपसे बात करनी है, आपसे बात करनी है' - पर उस बदतमीज  आपको फोन नहीं दिया. मैंने अपने नाम  भी बताया बट उस बदतमीज ने `wrong number'-कहकर फोन कट दिया."
गुस्से से पापा का भी चेहरा  तमतमा गया-" अच्छा, मैं कल जाते ही पता करता  हूँ."
" पा, मैं भी आपके साथ चलूंगी कल ऑफिस."- मैंने कहा. मैं भी उस बदतमीज के चेहरे का पानी उतरता देखना चाहती थी- जब पापा उसकी क्लास लेते. 
सच भी था. पापा हर बात बर्दाश्त लेते थे मगर मेरी तकलीफ और मेरी बेइज्जती उन्हें कभी बर्दाश्त नहीं थी. 
***
" कल मेरे घर से आई काल किसने रिसीव की थी?"- पूरे स्टाफ को फर्म के स्टाफ रूम में रेगमाल के खुरदरे लहजे में पूछा तो स्टाफ रूम में सन्नाटा खिंच गया. सबके-सब अपराधी की भांति हाथ बांधे पापा के सामने खड़े थे. इकलौती मैं थी जो पापा के सामने चेयर पर बैठी थी. उस वक्त मैंने फूलों के प्रिंट वाली स्कर्ट और लाईट पर्पल हाफ स्लीव वाली शर्ट पहन रखी थी. मेरे बालों को पोनीटेल कि शक्ल में बांध रखा था.मेर जेहन में में अजीब-सी संतुष्टि के भाव ने सिर उठाना शुरू किया.
 स्टाफ रूम में कई पलों तक पैना सन्नाटा छाया रहा.
"सर."-पापा कि रिसेप्सनिष्ट छाया ने मिमियाते हुए कहा-" मेरे सामने तो मे`म का कोई फोन नहीं आया था.पांच   बजे के बाद आया होगा."
" काल साढे पांच बजे आई थी."-पापा ने खुरदरे स्वर में  कहा.
" सर, साढे पांच बजे तो अपनके घर से कोई काल नहीं आई थी."-ठीक  पीछे से एक स्वर उभरा-"हाँ एक क्रैंक काल जरूर आई थी."
" क्रैंक काल?"-पापा उलझे.
" सर, किसी लड़की की काल थी."-कहा गया. 
मैंने झटका से घूमकर देखा. 
ठीक मेरे पीछे एक हल्के से बदन का पच्चीसेक साल का युवक खड़ा था. रंगत गेहूं जैसी. कद साढे पांच फीट. अधघुन्घराले बाल अंडाकार चेहरा. काली आँखे. होठों पर छंटी हुई छोटी-छोटी मूंछे. उस शख्स का ध्यान जरा भी मेरी तरफ  नही था. वो पापा के ही मुखातिब था. लगातार कह रहा था-" बार-बार यही रट लगाए जा रही थी कि `पा से बात करनी है, उन्हें फोन दो .' मैंने पूछा `किसके बात करनी है?' तब नही किसी का नाम नहीं लिया."
" तुमने क्या किया?"- पापा ने पूछा.
" और क्या करता?"- उन्होंने सहज भाव से कहा-" फोन रख दिया."
" मैंने अपना नाम तो बताया था."- मैंने शब्द चबाए.
" अरे!"- झटके से मेरी तरफ लुक देकर वो बोले-" अपना नाम बताने से क्या ये पता चल जाता है कि आपको किससे बात करनी है..........."
वो आगे कुछ कहते इसे पहले ही पापा कि आवाज मेरे पीछे से उभरी-" इसके नाम बताने से पता चल जाता है. ये मेरी इकलोती बेटी है.'
वो एकदम जैसे फ्रीज हो गए, मुंह में  दही जम गयी थी. 
सच. 
मेरे दिल को बड़ा सुकून मिला उनकी वो हालत देखकर. किन्तु मेरे मान का सुकून ज्यादा देर तक कायम नहीं राह सका. उनके मुंह कि दही पिघली और वो कह उठे-" मै`म, i m sorry for that, बट ये तो आपको भी सोचना चाहिए था कि आप किससे बात कर रही हैं ? आप स्टुपिड की  तरह हर बार ये ही रट लगाये जा रही थी कि` पा  से बात करनी है, पा से बात करनी है.' अगर आप अपना इंट्रो ठीक से देतीं तो क्या मैं उस तरह बिहेव  करता?
वैसे भी मुझे क्या पता है कि सर के परिवार में कौन-कौन हैं और उनके नाम क्या  हैं?"
मैं जलकर रह  गयी-` मुझे स्टुपिड कहा!'
" बेटा, मुकुल ठीक कह  रहा है."- पापा कि आवाज मेरे कानों में पड़ी तो  मैंने पापा की  तरफ लुक दी. पापा के होठों पर मुस्कान थिरक रही थी.-"इसे दो ही महीने हुए है यहाँ काम करते हुए.इसे तेरे बारे मैं नहीं पता होगा.अगर तू ठीक से इसे अपना इंट्रो देती तो ये उस तरह बिहेव ना करता.वैसे भीं ये बड़ा ही डीसेंट लड़का है-भई मुकुल,माफ़ी मांग लो इससे ."
" सर मैं सॉरी तो बोल चुका हूँ"- वो आज्ञाकारी बालक की  तरह बोले-"पर अगर आप कहते हैं तो मैं फिर  माफ़ी मांग लेता हूँ"- मेरी तरफ लुक दी. मैं भी उनकी तरफ घूमी. वो बोले -" oh sorry ma'm. please forgive me."
मैं कुछ नहीं बोली.
मैंने एक-एक करके सबको लुक दी. सबके होठों पर दबी-दबी मुस्कान थिरक रही थी. मैं कसमसाकर रह गई.वो एकदम गंभीर नजर आ रहे थे किन्तु मुझे यकीन था अंदर-ही-अंदर वो बेहद खुश होंगे.
स्टुपिड को इतना भई कामन सैंस नहीं था-जब फर्म का नाम पलक था और मैं अपना नाम पलक बता रही थी.तो पापा कि ही बेटी थी ना.
  मैंने ये सब कहना तो चाह मगर ना कह सकी. मेरी हालत उस बच्ची कि तरह थी जिसे किसी ने झन्नाटेदार थप्पड़ मारकर लोलीपोप थमा दी हो.
love diary जारी है......... प्यार का मोसम पास आ रहा है दोस्तों ( १४ फरवरी) इसीलिए मेरे द्वरा लिखी गयी अप्रकाशित प्रेम कहानी  उपन्यास पढ़िए. आगे कि कहानी आपको अगली पोस्ट्स में  पढने  लिए मिलेगी.उम्मीद करता हूँ आपकों आखिरी तक बांधकर रखूंगा.