Thursday, May 14, 2015

संघर्ष की मिसाल किंजल सिंह


हर कामयाब इंसान  कामयाबी की ख़ुशी सबसे पहले  चाहता है जिन्हे वो सबसे ज्यादा प्यार करता है; किन्तु उसकी कामयाबी के वक्त उसके साथ वो थे ही नहीं जिन्हे वो सबसे ज्यादा प्यार करती थी-उसके मम्मी- पापा।  
      किंजल के पिता-स्वर्गीय  केपी सिंह -की उनके ही महकमे के लोगों ने कथित तौर पर 30 साल पहले हत्या कर दी थी.अपनी कामयाबी  के बाद किंजल ने इंटरव्यू में कहा था -बहुत से ऐसे लम्हे आए जिन्हें हम अपने पिता के साथ बांटना चाहते थे...जब हम दोनों बहनों का एक साथ आईएएस में चयन हुआ तो उस खुशी को बांटने के लिए तो हमारे पिता थे और ही हमारी मां.



     ये शब्द किंजल ने तब कहे थे जब वो अपने पिता के हत्यारों को मुजरिम साबित करने में कामयाब हो गयी थी। जब वो ये सब कह रही थीं तो उनकी आवाज से तो दुख का पता चलता था और ही भावुकता का।  हां, वो ये जरूर कह रही थीं कि उनके पिता के हत्यारों को फांसी की सजा मिलने से वो खुश हैं; लेकिन ये खुशी उनकी आवाज से झलक नहीं रही थी। मुमकिन है वक्त ने उनके जख्मों को भर दिया है और अब वो काफी हद तक संतुलित हो चुकी हैं।  
  किंजल सिंह आज एक आईएएस अफसर जरूर हैं लेकिन इस मुकाम तक पहुंचना उनके लिए आसान नहीं था.किंजल कहती हैं- सबसे ज्यादा भावुक करने वाली बात ये है कि मेरी मां जिन्होंने न्याय के लिए इतना लंबा संघर्ष किया आज इस दुनिया में नहीं है. अगर ये फैसला और पहले जाता तो उन सब लोगों को खुशी होती जो अब इस दुनिया में नहीं है।तो क्या देरी से मिले न्याय की वजह से वो असंतुष्ट हैं? किंजल का जवाब हां और के बीच से आता हैं।  उनका कहना है कि फैसले से उन्हें खुशी हुई है लेकिन अगर न्याय के इंतजार में दौड़ भाग करना पड़े तो अच्छा है.
किसी नेसही कहा है - जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड 
यानि देर से मिला न्याय मिलने के बराबर है.
जाहिर है हर किसी में किंजल जैसा जुझारूपन नहीं होता और ही उतनी सघन प्रेरणा होती है। अपने एक इंटरव्यू में किंजल ने बताया - जब मेरे पिता की हत्या हुई उस वक्त वो आईएएस की परीक्षा पास कर चुके थे. उनका इंटरव्यू बाकी था.तभी से मेरी मां के दिमाग में ये ख्याल था कि उनकी दोनों बेटियों को सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठना चाहिए. उसी सपने को हम लोगों ने पूरा किया.”
      जिस वक्त किंजल के पिता की हत्या हुई थी उस वक्त वो गोंडा जिले में पुलिस उपाधीक्षक के पद पर तैनात थे।  मार्च 1982 में गोंडा जिले के माधोपुर गांव में उनकी हत्या कर दी गई थी।  पुलिस का दावा था कि केपी सिंह की हत्या गांव में छिपे डकैतों के साथ क्रॉस-फायरिंग में हुई थी। लेकिन उनकी पत्नी यानि किंजल की मां का कहना था कि उनके पति की हत्या पुलिस वालों ने ही की थी। बाद में इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी. जांच के बाद पता चला कि किंजल के पिता की हत्या उनके ही महकमे के एक जूनियर अधिकारी आरबी सरोज ने की थी। हद तो तब हो गई जब हत्याकांड को सच दिखाने के लिए पुलिसवालों ने 12 गांव वालों की भी हत्या कर दी।अब 30 साल तक चले मुकदमे के बाद सीबीआई की अदालत ने तीनों अभियुक्तो को फांसी की सजा सुनाई।  इस मामले में 19 पुलिसवालों को अभियुक्त बनाया गया था जिसमें से 10 की मौत हो चुकी है।  
    पिता की हत्या के समय वे महज छह माह की थीं जबकि उनकी छोटी बहन 
प्रांजल का जन्म पिता की मौत के छह माह बाद हुआ. उनकी मां विभा सिंह इंसाफ के लिए अकेली लड़ती रहीं।   डीएसपी सिंह आइएएस बनना चाहते थे और उनकी हत्या के कुछ दिन बाद आए परिणाम में पता चला कि उन्होंने आइएएस मुख्य परीक्षा पास कर ली थी।  किंजल बताती हैं, “जब मां कहती थीं कि वे दोनो बेटियों को आइएएस अफसर बनाएंगी तो लोग उन पर हंसते थे.”उनकी माँ विभा सिंह  बनारस में कोषालय कर्मचारी थी। उनकी तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा मुकदमा लडऩे में चला जाता था।  
     इस बीच किंजल को दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में प्रवेश मिल गया।  यहां ग्रेजुएशन के पहले ही सेमेस्टर के दौरान पता चला कि उनकी मां को कैंसर है और वह अंतिम स्टेज में है।   यह बात है 2004 की।  कीमोथैरेपी के कई राउंड से गुजर कर विभा सिंह की हालत बेहद खराब हो गई थी लेकिन बेटियों को दुनिया में अकेला छोड़ देने के डर से वे अपने शरीर से लगातार लड़ रही थीं।  किंजल बताती हैं- “एक दिन डॉक्टर ने मुझसे कहा, `क्या तुमने कभी अपनी मां से पूछा है कि वे किस तकलीफ से गुजर रही हैं?' जैसे ही मुझे इस बात का एहसास हुआ, मैंने तुरंत मां के पास जाकर उनसे कहा कि  मैं पापा को इंसाफ दिलवाऊंगी।  मैं और प्रांजल आइएएस अफसर बनेंगे और अपनी जिम्मेदारी निभा लेंगे. आप अपनी बीमारी से लडऩा बंद कर दो. मां के चेहरे पर सुकून था. कुछ ही देर बाद वे कोमा में चली गईं और कुछ दिन बाद उनकी मौत हो गई। ” 
     किंजल को मां की मौत के दो दिन बाद ही दिल्ली लौटना पड़ा क्योंकि उनकी परीक्षा थी।   उसी साल किंजल ने दिल्ली यूनिवर्सिटी टॉप किया।   इस बीच उन्होंने छोटी बहन को भी दिल्ली बुला लिया और मुखर्जी नगर में फ्लैट किराए पर लेकर दोनों बहनें आइएएस की तैयारी में लग गईं।  किंजल बताती हैं -“हम दोनों दुनिया में अकेले रह गए।   हम नहीं चाहते थे कि किसी को भी पता चले कि हम दुनिया में अकेले हैं। ” 
    २००८ ई०  में दूसरे प्रयास में किंजल का चयन आइएएस के लिए हो गया, उसी साल प्रांजल पहले ही प्रयास में आइआरएस के लिए चुन ली गईं।  अपनी मां को अपना आदर्श मानने वाली किंजल कहती हैं - “यह लड़ाई मैं अपने मौसा-मौसी और प्राजल के बगैर नहीं लड़ पाती। ”
   किंजल सिंह अतीत की यादे उकेरती हुई कहती है -"मैने अपने कमजोरी को सदैव अपना ताकत बनाया। हम दोनों बहने हास्टल में रहकर पढाई करती थी। अवकाश अवधि में सहपाठी घर चले जाते थे। हमारे पास कोई अपना घर नहीं था। सो हास्टल में रहकर अध्ययन किया करते थे। क्योंकि यह गुरूकुल ही मेरा आशियाना था। कड़ाके की सर्दियों में जब लोग कमरों में दुबक जाते थे निशा की नीरवता सबको डराती थी तब ऐसा प्रतीत होता था कि मेरे लिए मानो निशा प्रकाश पुंज बिखेरती थी। पढाई में लिहाफ, रजाई, कम्बल आलस्य स्वरूपी बाधा बने सो बालकनी में किताब, पेन लेकर बैठ जाती थी। हवाओं की ठण्डी, ठण्डी झोके सेहरन नहीं बल्कि मेरे उत्साह को ऊर्जा प्रदान करते थे। मैने रात की सूनी सडक को अपनी सहेली बना लिया था। मेरे दिलों दिमाग में भलीभांति रच बस गया था कि जब रातभर सड़क चल सकती है तो मै पढ़ क्यों नहीं सकती। नियमित रूप से १८  घण्टे पढ़ना मेरे रोजमर्रे में गया था। जबकि प्रांजल का मन पढाई में ज्यादा नहीं लगता था।.…… बावजूद इसके परिस्थितियों की दुहाई देकर उसे हर वक्त पढाई के लिए प्रेरित किया करती थी। कठिन परिश्रम और लगन ही था कि २००८ ई०  में आईएएस में मुझे २५वां  स्थान मिला। जबकि प्रांजल को २५२वां  रैंक मिला।"
किंजल कहती है कि आप में सच्ची लगन और कठिन परिश्रम का माजदा है तो लक्षित लक्ष्य पाने से कोई ताकत नहीं रोक सकती। मां विभा सिंह की आसमायिक मृत्यु हो गई। पिता पहले से ही नहीं थे। मां ने बीच में ही छोड़कर परमधाम सिधार गई। भला इससे भी बड़ा सदमा किंजल और प्रांजल के लिए हो सकता था। मां तो चली गई लेकिन उनका आशीर्वाद एवं प्रेरणा किंजल-प्रांजल के लिए अमोघ शक्ति साये की तरह साथ रही। मां के सपने को पूरा करने के लिए दोनो बहनों ने पूरी ऊर्जा झोक दी। पढ़ाई एवं तैयारी के लिए अब इन दोनों बहनों के लिए सिर्फ और सिर्फ मां के पेशन का ही सहारा था; क्योंकि अन्य आय का कोई स्रोत नहीं था। उसी पेंशन से किंजल सिंह ने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि ली फिर दिल्ली ला फकैलिटी से एलएलबी किया। 

किंजल सिंह अन्र्तमुखी है। उनमें ऐसे पद पर पहुंचने की ललक थी जहां वे समाज का भरपूर सेवा करने में सक्षम है। पीडि़तों को न्याय दिलाना उनके सपने में शुमार था। शायद एलएलबी करना उनके सपने की कड़ी रही होगी। ताकि न्यायिक पद पर पहुंच सके। लेकिन उनकी आईएएस पहली पसंद थी। आईएएस की पहली परीक्षा में वह चयनित नहीं हो पाई। सफलता की सीढ़ी छूते-छूते रह गई फिर भी वे निराश नहीं हुई। हताश, निराश होने के बजाय पूरे शिद्दत से तैयारी में जुट गई। अन्ततः उनके मेहनत और भाग्य ने दोनों बहनों का साथ दिया। किसी शायर की यह पंक्तियां इन पर सटीक बैठती है किमंजिले उनको मिलती है जिनके सपनों में जान होती है, पंख कुछ नहीं हौसलों से उड़ान होती है।"
प्रशिक्षण के बाद किंजल सिंह ने यूपी के उन्नाव जिले में प्रावेशनल ट्रेनिंग  की। तत्पश्चात लखनऊ में  ज्वाइंट मजिस्ट्रेट  रही। बाराबंकी में मुख्य विकास अधिकारी के पद पर तैनाती मिली। २०१२ ई०  में पहली बार उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने बहराइच जनपद की बतौर जिलाधीश के पद की जिम्मेदारी सौंपी। आजादी के बाद जनपद को तीन महिला जिलाधिकारी मिली। जिसमें किंजल सिंह से पूर्व शालनी प्रसाद तथा पिंकी जोवल जिला मजिस्ट्रेट थी। उक्त दोनों महिला जिलाधिकारी जनपदवासियों की कसौटी पर खरी नहीं उतरी। किंजल की तैनाती के बाद जनपदवासियों के दिलो दिमाग में जनहितार्थ को लेकर संशय रहे। हलांकि किंजल सिंह जनपद में आयी तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अफसर उनकी रूचि की लिस्ट बनाने पहुंच गये। किंजल सिंह ने उनको दो टूक उत्तर दिया कि मै अपने बंगले का खर्च स्वयं वहन करूगी। आप लोग जनता को वह सब कुछ उनका हक उन्हें मुहैया कराये। जिसकी जिम्मेदारी सरकार ने सौंप रखी है। 

माना जाता है कि जिलाधिकारी के बंगले का सभी जरूरी वस्तुएं, सामग्रियों की आपूर्ति जिला पूर्ति विभाग करता है। सो जब भी कोई नया जिलाधिकारी जिले में पदभार ग्रहण करता है तो सभी विभागों के अधिकारियों, कर्मचारियों की निगाहे जिलापूर्ति के मेहमान नवाजी पर होती है। उसी से आगन्तुक जिलाधीश के आचार विचार तथा कार्य करने की शैली का अंदाजा लगा लेते है। किंजल सिंह ने जब जिलापूर्ति विभाग के मेहमान नवाजी की पेशकश ठुकरा दी तो अन्य विभाग वालों ने उनके सम्भावित भावी कार्यशैली का अंदाजा लगा लिया। चिलचिलाती धूप में बाढ़ पीडि़तों के हितार्थ में घाघरा सरयू के कोख से लेकर धूल के अन्धड़ों में तूफानी दौरे किये। वातानुकूलित कमरो के प्रेमियों एवं धूल धूप से एलर्जी रखने वाले कागजों में बाजीगरी में उस्ताद पेटू अधिकारियों के पसीने छूट गए। पटरी से उतर चुकी कस्तूरबा विद्यालयों को चंद दिनों में लाइन पर ला दिया। केन्द्र और .प्र.सरकार की अति महत्वाकांक्षी योजनाओं को जमीनी परवान चढ़ाया। प्राथमिक शिक्षा पर नजरें इनायत कर स्कूलों में जा-जाकर नन्हें नौनिहालों के सिरा पर स्नेह का हाथ फेरा। मिड-डे मील की गुणवत्ता परखा। तो वह नौनिहालो की किंजल दीदी बन गई। घर-घर में शौचालय योजना पर धार दीा तो बूढे बुजर्गों की चेहेती बेटी बन गई। वनग्राम में दस्तकक दी तो सर्दियों से उपेक्षित वनग्रामवासियों की किस्मत ही चमक गई। किंजल को भ्रष्ट, कामचोर, लापरवाह और झूठो से सख्त नफरत है। सौम्य, सरल, मृदभाषी किंजल सिंह शेरनी की तरह दहाड़ती भी है। उन्हें गुस्सा भी आता है। यह तब होता है जब विकास में व्यवधान से रूबरू होना पड़ता है। किंजल की उपलब्धिया गिनाना मुमकिन नहीं। क्योंकि लम्बी फेरहिस्त है।

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