Friday, April 29, 2011

love diary 5

अध्याय- १४ 
अब रिजल्ट ये था कि मैं अपन बैडरूम में सुहागसेज पर बैठी `उनके' आने का इन्तजार कररही थी.

हालंकि रिश्ते  को मेरे  सलामत और मौजूद रिश्तेदारों ने  यूं ही नहीं  मान लिया था. मेरे मामा जी  और बड़े चाचा ने एडवोकेट सचदेव से इस मुद्दे पर काफी बहस की.
पर वो बहस करने क सिवा  कुछ न कर सके .
मैं चुप रही.

जब शादी हो चुकी थी  तो रिसेप्शन भी रखा जाना था . वो भी  रखा गया.मैंने  रिसेप्शन वाली दोपहर को  ही नेहा को फोन करके शादी के बारे में बताया शाम को हों वाले रिसेप्शन कि खबर दी. नेहा ने खबर सुनकर यूं रिएक्ट किया जैसे मैं उसे अपने घर कि छत पर यु. ऍफ़ .ओ. के उतरने कि खबर दे रही होऊं. चूंकि खबर मैं खुद दे रही थी उसको सच स्वीकार करना ही था.मैंने अपने  बाकी दोस्तों को  भी खबर की. शशांक और उसके घरवालों  को कुछ  नहीं बताया. नेहा से भी कह दिया कि वो भी वैसा न करे.

रिसेप्शन   एकदम शांत अंदाज से हुआ .दोस्त और रिश्तेदारों  ने शिरकत की. `उनके' भी दोस्त  और रिश्तेदार  आये मगर उनकी सगे चाचा-ताऊ  का दीदार नहीं हो  सका. हाँ उनके ननसाल वाले  जरूर आए.

रिसेप्शन के बाद दुल्हन के जोड़े में मुझे मेरे बैडरूम में पहुंचा दिया गया-जिसे नेहा और मेरे चाचा की बेटी ने अपने हाथों से सजाया था. ये सच था उनके लिए मेरे मन में कोई भी एक्साईटमेंट नहीं था मगर `वो' जो मरे साथ  उस रात को करने वाले थे , उसके बार मे सोचकर ही मेरे बदन में करंट सा दौड़ जाता था. शादीशुदा जीवन  की  उस पहली रात के बारे में सहेलियों के बीच काफी  डिस्कशन हो चूका था. कुछ ने कुंवारेपन में ही उस सुख को भोग  लिया था.सबने दो कोमन चीजों को भोगा था. एक तकलीफ और दूसरा बेहद  सुख.किसी को कम तकलीफ हुई थी किसी को थोड़ी ज्यादा.बेहद सुख सभी को मिला था.
मुझमे और उन सबमे एक बात जुदा थी.
उन सब लडकियों ने जिसे अपना तन  सौंपा था, वो उनके मनपसंद मर्द थे-जबकि `वो' मुझे जरा भी पसंद नहीं थे.चूंकि मैं उनकी हो चुकी थी, आज नहीं  तो कल उन्हें अपना तन सौपना ही था तो आज इनकार क्यों  करूँ?
मैं तो सोच रही थी की ऐसा क्या करूँ कि `हलाल' होते समय ज्यादा तकलीफ न हो.मैं उनसे साफ़-साफ़ `उस' बारे बात कर सकूं मैं इतनी बोल्ड भी उनके साथ नहीं थी.
घंटे भर के इन्तजार के बाद उनकी आमद कि आहट मेरे कानों में पड़ी तो मेरे नखशिखांत एह सर्द तरंग मेरे बदन में दौड़ गयी. हालाँकि मैंने रूम के दरवाजे की तरफ ग्लैंस तक तक नहीं डाली थी-तब भी श्योर थी `वो' ही होंगे.
रात को उस समय सुहागकक्ष में- जब दुल्हन अकेली  हो-पति के सिवा आ ही कौन सकता है.
मेरे दिल कि धड़कने बढ़ गयी- जब मेरे  में दरवाजा बंद होने कि आवाज पड़ीं.सन्नाटे में सिटकनी चढ़ने की आवाज सरसराहट स्पष्ट पड़ी. मुझे लगा ए. सी.  कमरे में भी दुल्हन के भरी-भरकम लिबास में मी बदन ने पसीना उगलना शुरू कर दिया था.
पदचापें मेरी तरफ बढीं.
जैसे-जैसे `वो' मेरी तरफ बढ़ रहे थे मेरे दिल की धड़कने और तेज होती जा रही थीं.हालाँकि मैं काफी देर अपने आपको तैयार कर  रही थी तब भी उनके आगमन कि आहट से मेरी हालत जाल में कैद हिरनी के सामान हो गयी थी जिसको शिकारियो के आने की  आहट मिल गयी हो.
`वो' मेरे पास आये.
तब मैंने पहली बार उस तरफ नजर उठाकर लुक दी. हाँ, वही थे. वो एकम गंभीर थे.
हाँ, हलाल करते समय  शिकारी गंभीर ही रहता  है.
 `वो'  बिस्तर पर पैर लटकाकर बैठ गये. मेरी तरफ देखते रहे 
उफ़!उनकी नजर जैसे मेरे लिबास को जलाकर मुझे निर्वस्त्र कर देना चाहती थी. उन निगाहों  की तपिश मेरे लिबास को पार करके मेरे जिस्म क्या मेरी रूह तक को झुलसाने लगी थी.मैं अपनी नजर झुकाए अपने पैरों के नाखूनों  में लगी नेल पॉलिश को देखने लगी  थीजो मेरे लिबास कि मानिंद  ही सुर्ख थी.
" ज्यादा थकी हुई तो नहीं हो ?"-उनका गंभीर स्वर मेरे कानों में पड़ा .
अगर ज्यादा थकी हुई हूँ तो क्या हुआ?-मैं मन-ही-मन बोली-आप कौन-सा बाज आ जाना वाले हो.
सो, मैंने कहा-" कुछ ख़ास नहीं. मैं ठीक हूँ."
" मैं सोच रहा था आपने कपडे बदल लिए होंगे."-वो बोले-" इसीलिए मैं जरा-सा देर से आया था-ताकि आप कपड़े बदल सको."
मैंने झटके से उनकी तरफ लुक दी.उनकी वो बात मेरी समझ में जरा भी नहीं आई.
मैं कपडे क्यों बदलने लगी भला ? जब कपड़ों को बदन से अलग होना ही है तो उन्हें  उतारकर दुसरे  पहनने का क्या तुक है.
अब मैं `उनसे' क्या कहती?
" अब अगर मैं इस वजह से बाहर जाता हूँ- की आप कपड़े बदल रहीं हैं- तो लीगों को अजीब लगेगा."-`वो'   बोले-"अब आप बाथरूम में जाकर वो  कपडे बदल लो जिसमे आप आराम से सो सकें. हाँ न-न-नाईटी मत पहनना. सिंपल  सूट-सलवार पहन लो.......than we will talk."
मैं हैरान !
उस समय वो मुझे किसी एलियन से कम नजर नहीं आ रहे थे.हालंकि `वो' मेंरे साथ `कुछ' नहीं करना चाहते थे -ये मेरे लिए एक सुकून देने वाली खबर थी. तब भी मुझे उनका बिहेव अजीब सा लगा.
जैसा उन्होंने कहा था मैंने वैसा ही किया. मैंने बाथरूम में जाकर कपडे बदले.मैंने बाथरूम में जाकर सूट-सलवार पहन लिए जो महीने भर पहले मैंने ही बनवाये थे. शादी का जोड़ा परम्परा के अनुसार उन्होंने ही बनवया था.आप जानते ही होंगे. हिन्दू शादी की परम्परा में लड़की की गोद भराई से लेकर फेरों तक तमाम वैवाहिक  रीतियों  के कपडे-अन्तः वस्त्र तक- लड़की की ससुराल वालों की तरफ से आते है.चूंकि `उन्हें'  मेरी ब्रा के साइज़ का नहीं पता था, मेरे पति होने के बावजूद भी वो उन्होंने मुझे शबनम आंटी के थ्रू  पत्र करवाया था.
मैं बाथरूम से निकली तो उन्हें बिस्तर पर बैठा पाया. एकदम धीर-गम्भीर . मैं भी बिस्तर पर दूसरी तरफ से चढ़कर बैठ गयी. .मेरी ओर मुखातिब होते हुए वो मेरी ओर खिसके-उनके और मेरे बीच बिस्तर पर भी काफी डिस्टेंस था. उसके बावजूद भी एक इंच की दूरी कम हो जाने पर बदन में तेज सिरहन दौड़ गयी थी-`वो'        बोले-"क्या  आपको पता था -आप किन कागजों पर साइन कर रही थीं?"
" कब?"
" हॉस्पिटल में."-`वो' बोले-" जब आपने शादी के कागजों पर साइन किया था." 
" नहीं मुझे नहीं पता था."
" अगर पता होता तो क्या आप साइन कर देतीं."
मैं चुप रह गयी.
मेरी गर्दन झुक गयी. मुझे पता था `वो' लगातार मुझे देखे जा रहे थे.रूम का माहौल पहले ख़ामोशी से भरा था- तब सन्नाटे भर गया था.चंद पल मेरे जवाब का इन्तजार करने के बाद `वो' पूर्ववत्त या लिखूं की उससे भी ज्यादा धीर-गंभीर भाव से बोले-"मुझे पता था- आपका जवाब यही होगा. आप मुझसे शादी नहीं करती.उस वक्त मेरे मन में आया भी था -कि सर को आपके बॉयफ्रेंड के बारे में बता दूं मगर मैं ऐसा नहीं कर सका......"
मैंने झटके से उनकी तरफ  देखा. वो लगातार कहते चले जा रहे थे-" उस समय सर आपको सेफ हाथों में छोडकर `जाना' चाहते थे.इसी वजह से उन्होंने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा. अब मुझे लगा- शायद वो बच न पायें.सच कहूं तो मुझे नहीं लगता वो नोर्मल हालातों में आपका हाथ मेरे हाथ  में देते. वो आपके लिए आपकी ही तरह खूबसूरत प्रिंस  जैसा लड़का तलाश करना चाहते थे- जो आपको बेहद खुश रखे. हालातों ने उन्हें इस तरह का डिसीजन लेने के लिए मजबूर कर दिया.मैं आपके लायक नहीं हूँ. आपके पापा ने हमेशा -अपनी आखरी सांस तक भी - आपका भला ही चाहा, इसीलिए उनके लिए मन में कोई भी नेगेटिव सोच मत रखना."
" मुझे पता है."-मैं धीमे स्वर में बोली-"पा  ने हमेशा मेरा भला ही चाहा है."
" वैसे आपके लिए एक अच्छी खबर भी है."-उन्होंने कहा-" हमारी शादी कानूनन  मान्य नहीं है."
मैं हैरान!
सुनकर मेरा दिमाग सीलिंग फैन की तरह घूम गया.मैं हैरान-सी उनका चेहरा देखती रह गयी.मुझे मेरे  कानों पर यकीन नहीं  हो रहा था.
" ये सही है."-वो बोले -" कोई शादी तब तक मान्य नहीं होती जब तक दोनों पक्ष कोर्ट में या मेरिज रजिस्ट्रार के सामने शादी के पेपर्स पर गवाहों के साथ साइन न करें जब मैंने गवाहों ने और आपके पापा ने  साइन किये थे तब रजिस्ट्रार साहब मौजूद थे मगर एक अर्जेंसी की वजह से वो आपके आपकी आने से पहले ही चले गये थे. आपने रजिस्ट्रार की गैरमौजूदगी में बगैर जानकारी के साइन किये थे, सो ये शादी मान्य नहीं है."
"जब आपको पता था की ये शादी मान्य नहीं है तो तो इतना ताम झाम किसलिए किया? ये रिसेप्शन  पार्टी  क्यों रखी गयी?"-मैं हैरानी की वजह से पागल सी हो गयी थी.
" आप शायद भूल रही हैं कि आपके पापा आपको सेफ हाथों  में सौंपना चाहते थे."-उन्होंने सब्र से बताया -अगर अगर सबको ये पता चल गया कि आपको शादी हुई ही नहीं है तो मुझे आपसे अलग होना पड़ेगा. आपका बॉयफ्रैंड यहाँ नहीं है......"
" मेरे चाचा जी -मामा जी तो हैं."-मेरी आवाज सख्त हो गयी थी.
" अगर उन्हें उनपर यकीन होता तो ये नौबत ही न आती."-`वो' पूर्ववत्त संयत भाव से साढ़े हुए स्वर में  बोले जैसे पूरा होमवर्क प्रोपर वे में करके आये हों -"अगर   उन लोगों के बीच सबकुछ ठीक होता तो आपके पापा आपका हाथ मेरे हाथ में न देते."- विराम, मानो पैराग्राफ बदलकर आआगे बढे हों-" हाँ, तो मैं कह रहा था कि आपका बॉयफ्रैंड  -i dont know adjectly who is he-यहा है भी नहीं. पता नहीं वो तुरंत लौटकर आ सकता है या नहीं. जब तक वो लौटकर नहीं आ जाता तब तक मैं चाहत हूँ तब तक हम ये रिश्ता ज्यों-का त्यों शो करते रहें.कल लोग चले जायेंगे. नौकर  तो रात को रोज ही यहाँ नहीं रहते. तब हम आराम से अलग-अलग कमरों में सो सकते है.
मैंने सहमति से सिर हिला दिया.बोली  कुछ नहीं- चुप रही.
उस रात हम एक ही कमरे में सोये. एक ही बिस्तर पर महर अलग-अलग कोनों पर. वो एक मकिंग साइज बैड था सो हम बड़े आराम से उसपर दूरी बनाकर सो सकते थे.मुझे पता था  वो `कुछ' नहीं करने वाले थे.अगर उन्हें कुछ करना होता तो वो ये बातें मुझे बताते ही नहीं. मेरे हिसाब से तो शादी हो चुकी थी.
वाओ!!!
क्या कमाल की सुहागरात थी मेरी!!
जिस रात नवदम्पति एक दुसरे के बीच की दूरियां समेटने के लिए  उतावले रहते हैं उस रात हम बिस्तर  के दो कोनों पर सो रहे थे. ये भी तय हो गया था कि आगे से हर रात अलग-अलग रूम्स में सोया करेगे.मेरे  पतिदेव बजाए मुझे हासिल करने के बजाए मुझे ये बता रहे थे कि वो सही वक्त पर मुझे आजाद कर देंगे. मुझे किसी और के हवाले कर देंगे.
वैसे एक बात और भी थी.
मुझे पता था जाने कितने लड़के मेरे लिए  आहें  भरते थे और मैं जिसकी झोली में गिरी वो मुझे हासी करना तो  दूर मुझे किसी और के हवाले करना का इरादा बनाए हुए था.
क्या ये ममेरे हुस्न की बेइज्जती नहीं थी????
***
ठक-ठक-ठक.
नॉक की आवाज से मेरी नींद टूटी.
मेरी बड़ी चाची की लाड  से भरी आवाज नॉक के तत्काल बाद दरवाजे के पार से उभरी-" पलक, उठ जा, बेटा. नहा धो इ. सुबह हो गयी है."
" ज-ज-जी, आंटी जी."-मैंने अलसाये स्वर में कहा.
मैंने उधर- जिधर वो रात को सोये थे-लुक दी.
वो वहां पर नहीं थे.
मैंने वाल क्लोक पर नजर डाली सुबह  के छ: बजे हुए थे.सूरज निक चूका था और उसकी गुलाबी रौशनी बकनी के रास्ते कमरे में प्रवेश कर रही थी. मेरा ध्यान बाक्नी की तरफ गया. `वो' बालकनी में पड़ी लांजचेयर लेटे हुए थे. सिर के नीचे तकिया लगा हुआ था. तब उनकी आँखें खुली हुई थीं.
मैं बिस्तर पर उठकर बैठ गयी.
वो भी उठकर बैठ गये. न केव बैठ गये बल्कि मेरी तरफ भी बढ़ गये. मेरा दिल  धड़का. मैं भी उठकर खड़ी हो गयी.
उनकी हालत साफ़ चुगली कर रही थी वि भी रात को सोये थे.
" गुड मोर्निंग."- मेरे पास आकर वो बोले.
मैं भी बोली-" गुड मोर्निंग."
" आप फ्रेश हो लो."-वो बोले-" मैं बाहर  जा रहा हूँ."
" अ-अ-आप हो लिए?"-मैंने पूछा.
" नहीं."-वो बोले-"मैं अपने रूम में हो लूँगा. वहीं से वाक पर चला जाऊंगा." - अचानक वो ठिठके-" एक मिनट.. अगर मैं अपने रूम में जाकर......-" फिर खुद ही बोए-" लीव  इट. कोई कुछ नहीं  सोचेगा."
कहकर वो तुरंत बैडरूम में से बाहर निकल गये. उस समय मेरी समझ में कुछ नहीं आया. जो एक बात मेरी समझ में वो ये थी कि वो भी बेहद उलझनपूर्ण मानसिक द्वंद्व से जूझ रहे थे.
***
मैं डायनिंग टेबल पर गयी.
ब्रेक-फास्ट  के समय मेरे बड़े चाचा सुरेन्द्र शर्मा,चाची और मेरी चचेरी बहन तथा छोटे चाचा-चाचीमौजूद थे.
नाश्ते के समय जब मैं अपनी शेयर पर बैठी तो मेरे दाहिने तरफ वाली चेयर एकम खाई थी.एक पल को मेरी समझ में कुछ नहीं आया मगर जब `वो' वहां आ गये और अपने लिए चेयर तलाश करने लगे तो मेरे बड़े चाचा ने कहा-" अरे बैठिये न. कुर्सी खाली तो है."
मेरी बगल  में बैठी मेरी कजिन ने शरारत से कहा-"डोंट बी शाय जीजू. बैठ भी जाइये अब. ये चेयर आपके लिए ही रिजर्व है."
वो जरा से हिचकिचाते हुए टेबल का घेरा काटकर मेरी और बढे तो बरबस ही मेरे बदन में सिरहन दौड़ गयी.
वो मेरे पास ही आकर बैठे. मेरी और लुक तक नहीं दी. मैंने भी सीधी लुक  नहीं, पर एक नहीं कई बार लुक दी.
हम सब नाश्ता करने लगे.
***
नाश्ते के बाद चाचाओं ने हमे फैंसला सुना दिया कि वो लोग अपने अपने घरों में शिफ्ट हो रहे  थे. साथ ही बड़े चाचा जी ने कहा -"पलक बबेता, कोई भी बात हो तुरंत मुझे फोन करना. और हाँ, मैंने बात कर ली है. शब्बो का परिवार भी अब इसी बंगले में रह करेगा"
मेरा दिमाग घूम गया. 
मेरे ही पास `वो' भी खड़े थे.उनके चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे उनके अरमानों पर तुषारापात हुआ हो.
अध्याय-१५ 
उस वक्त मैं अपने बैडरूम में बैठी मैगजीन पढ़ रही थी जब मेरा मोबाइल बजा.मेरे चाचा-चाचियों को गये हुए घंटा भर ही हुआ था.
कॉलेज जाने में अब मेरा कोई इंटरेस्ट नहीं रहा था. `उन्होंने' भी मुझसे उस बारे में बात नहें की. शय वो नहीं चाहते थे कि मैं कॉलेज  जाऊ.
मैंने फोन उठाकर स्क्रीन पर नजर डाली. वहां पर शशांक की मम्मी का नम्बर नजर आ रहा था. मैं कॉल रिसीव की-" हेल्लो."
" शादी मुबारक हो, बेटा."-बेहद गंभीर आवाज थी शशांक की मम्मी-मिसेज यादव- की.
मैं सन्न रह गयी.
मेरा हर सैंस सुन्न रह गया.
जुबान को लकवा मार गया था. मेरे अंदर जैसे गुबार-सा  उठा और मेरी आँखें छलक पड़ी. मेरी जुबान बामुश्किल हिली तो भर्राहटपूर्ण स्वर फूटा-"आंटी...."
" पलक, क्या हम मिल  सकते हैं?"-उनकी पूर्ववत्त गंभीर आवाज मेरे कानों में पड़ी.
" आंटी i realy am so sorry."-मेरी आवाज और ज्यादा भर्रा गयी.
" बेटा, क्या हम मिल सकते है?"-उन्होंने दोहराया-जैसे मेरी ओपोलोजाइज का उनपर कोई फर्क न पडा  हो.
"हाँ."-मैं फंसी-फंसी आवाज में बोली.
"कब?"
" आप इस वक्त कहाँ है?"
"घर पर."
" मैं आ रही हूँ."कहकर मैंने  फोन डिस्कनेक्ट कर दिया.
***
शार्प आधे घंटे में मैंने अपनी कार शशांक के घर के गेट के सामने ले जाकर रोकी.उस समय मैंने पिंक कलर का चूड़ीदार सूट पहना  हुआ था.हल्का-सा मेक-अप कर रखा था.मांग में सिन्दूर सजा रखा था. थोड़ी सी ज्यूरी भी पहन रखी थी.मिसेज यादव का सामना करते समय मैं बेहद नर्वस थी.
कार से उतरते हुए मेरी टांगें कांप रही थीं.
मैंने बड़ी मुश्किल  से खुद को काबू में रखा और कार लोक करके दरवाजे की तरफ  बढ़ी.बड़ी हिम्मत करके मैंने कांपती अंगुली से  दरवाजे की बैल पुश की तो घर्रर्र की आवाज ने मेरी चेतना पर चोट सी की.
दरवाजा खुला.
मेरी नजर उनकी नजर से मिली तो मैं उनकी नजर का सामना नहीं कर सकी. नर्वस भाव से  मैंने नजर झुका ली. उनकी समन्दर के बाटम से निकली- सी गम्भीर आवाज मेरे कानों में पड़ी-" आओ."
मैं उनके साथ अंदर गयी. 
वो मुझे ड्राइंग रूम में ले  गयी, सोफे पर बैठाया, और बोली-" क्या लोगी?"
मैं कुछ नहीं बोली.
नजर क्या सिर भी अपराधी की तरह झुका हुआ था.एक गुबार-सा मेरे अंदर उठा और मेरी आँखों से आंसू छक पड़े. वो चौंकी-"अरे!!!"
वो तुरंत- सोफे पर-मेरे करीब बैठ गयी. मेरा कन्धा थाम लिया-" क्या हुआ,पलक."
और....
लम्बे समय से मेरे अंदर दबा गुबार मनो फूट पड़ा. मैं एक  मासूम-सी  बच्ची की तरह उनसे  लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ी. मिसेज यादव ने मुझे कसकर पकड़  अपनी बांहों में जकड़ लिया और मुझे सांत्वना देने लगी.
" आंटी,i nrealy am so sorry."-उनसे अलग होकर सुबकते हुए  र्मैने कहा-" सब कुछ एकदम से हो गया था."
" इट्स ओके बेटा."-मुझे सांत्वना देती हुई वो बोई-तो इसमें रोने वाली क्या बात है? मत रोओ. पर तुम्हे ये बात छिपानी नहीं चाहिए थी."
मैं कुछ नहीं बोली.
" देखो, लाइफ में बहुत कुछ हमारी एक्स्पेक्टेशन्सके विपरीत होता है."-वो बोली-"यूं चीजों को छिपाने से कुछ नहीं होता. जो हो गया  उसे एक्स्सेप्ट कर लेना चाहिए." 
मेरी रुलाई तो थम गयी थी, आँखों में आंसू तब भी थे.
तभी वो जरा से सावधान भाव से बोली-"शशांक को तो अभी कुछ नहीं बताया इस बारे में?" 
" नहीं."-मैंने भर्राए स्वर में बताया-" पा  के गुजर जाने के बाद दो-तीन बार ही बातें हुई हैं. नरसों ही शादी की बात ओपन हुई  थी. उसे बताने की हिम्मत मैं नहीं जुटा सकी."
" उसे अभी कुछ बताना भी मत"-वो बोली-"वो ट्रेनिंग पर  है. अभी उसे वहां ज्यादा वक्त नहीं हुआ है. वो पाहि बार घर से दूर गया है. उसे अभी अगर तुम्हारी शादी की खबर  सुनकर झटका लगा तो वो संभल नहीं पायेगा. उसकी ट्रेनिंग खराब हो जाएगी. जब वो छुट्टी पर घर आएगा तो मैं खुद उसे सब बता दूँगी."
" जी."
"अब ये बताओ क्या लोगी."-वो तत्काल हमेशा की तरह अच्छी मेहमान नवाज की तरह बोली-"चाय लाऊँ या कोल्ड ड्रिंक?"
मैं ना करती रही तब भी वो मेरे लिए शरबत बना ही लायीं.
आधा-पौना घंटा तक हम सुख-दुःख की बातें करते रहे.तब मैं काफी संभल  भी गयी थी.बातें करते-करते अचानक उनका ध्यान मेरी गर्दन पर गया-जहां बेध्यानी में मेरी चुनरी ढलक गयी थी.
"पलक  बेटा तुम्हारा मंगलसूत्र कहाँ है?"-वो चौंककर बोली.
मैं हडबड़ाई.बेसख्ता ही मेरा ध्यान अपनी गर्दन पर गया. वहां मंगसूत्र था ही नहीं.
" अ-अ-आंटी,वो-" मुझे जवाब नहीं सूझा-" म-मंगलसूत्र...."-तब मेरी समझ में वो जवाब आया. वही जवाब दे दिया-"म-म-मैं पहनना भूल गयी."
"ओह!"-वो बेसाख्ता ही मुस्कुरा पड़ीं-" समझी.`उस वक्त' चुभता होगा......बट सुबह के वक्त तो पहन लेना चाहिए."
किस वक्त?
मैं उलझी. पर तब भी कह  दिया-"हाँ-हाँ, बहुत चुभता है."
उनकी मुस्कान और ज्यादा चंचल और अर्थपूर्ण हो गयी-"जाते ही पहन  लेना." 
" जी, जरूर."-मैंने कहा.
***
घर लौटते समय मैं उलझी  रही.
किस वक्त?
किस`उस वक्त' की ओर इशारा  कर रही थीं  मिसेज यादव?
घर जाकर बिस्तर को देखकर मेरी समझ में `उस वक्त' का मतलब आया  तो मेरा चेहरा ह्या  से तप गया.बदन में करंट-सा दौड़ गया.
***
शाम को तकरीबन ४ बजे मैंने रियलाइज किया कि `उनका' सुबह से ही कोई पता नहीं था. वो नाश्ता करके निकले  थे. मैं शशांक के घर से आकर सो गयी थी. शाम को ४ बजे जगी तो उनका कोई पता नहीं था मैं बैडरूम से  निकलकर नीचे हॉल में आ गयी. वहां मुझे कोई नजर नहीं आया.
" शब्बो आंटी."-मैंने पुकारा 
मेरी आवाज सन्नाटे में प्रतिध्वनित होकर वापिस मेरे कानों में पड़ी. घर कि दूसररी नौकरानी(चंपा)- जिसका काम साफ़-सफाई था-एक कमरे से बाहर निकली-"जी मेम साहब."
" शब्बो  आंटी कहाँ है?"-मैंने पुछा.
 " जी वो तो अपना सामान लेने  के लिए अपने घर गयी है."-चम्पा ने बताया-" आने ही वाली होंगी."
" और तुम्हारे साहब का कुछ पता  है?"-मैने पूछा.
" जी, मुझे क्या पता होगा."-वो इनोसेंट भाव से बोली-" ये तो आपको पता होना चाहिए-वो कहाँ है?"
मेरे दिल  में कांटा-सा चुभा.
 सच कहा था उसने- मुझे पता होना चाहिए .
जबकि मुझे नहीं पता था.
मैं अपने बैडरूम में गयी. 
कहाँ गये होंगे वो ??
अपनी गर्लफ्रेंड  के पास?
मैं बैड पर हारी-सी बैठ गयी.
फोन करना चाहती थी लेकिन मेरे पास उनका नम्बर तक नहीं था. संभव था उनका  नम्बर शबनम आंटी या दूसरे नौकर के पास हो लेकिन मैं अपने हसबैंड का नम्बर उनमे से किसी के मांगती तो मेरे लिए ही शर्म की बात थी. 
कहाँ से हासिल करूं उनका  नम्बर?
तभी मेरा ध्यान पापा के मोबाइल की तरफ गया,जो पापा के गुजर जाने के बाद से मेरे कबर्ड में रखा था. मैंने कबर्ड खोलकर मोबाइल  निकला. उसे देखा तो  वो बैटरी खत्म हो जाने की वजह से बंद पड़ा था. वो मेरे लिए कोई परेशानी वाली बात नहीं थी. मेरा और पापा का फोन एक ही कम्पनीऔर मोडल  के थे.मैंने अपने फोन की बैटरी  पापा के फोन में लगाई और फोन तुरंत चालू हो गया. मैंने मोबाइल  से की फोनबुक से `उनका' नम्बर निकाला और डायल  कर दिया.
बैल  जाने लगी.
काल रिसीव की गयी तो ट्रैफिक  की आवाजें साफ-साफ़ मेरे कान में पड़ने लगी.कहा गया-" हेल्लो."
" हेल्लो."-मैंने कहा-"मैं पलक..."
"हाँ बोलिए"- ट्रैफिक की आवाज के बीच उनका स्वर उभरा-" मुझे पता है आप ही होंगी. सर का फोन आपके ही पास है." 
मेरे मन में उनका-`आपकांटे की तरह चुभा. चुभता तो पहले भी था लेकिन पहले मैं तब की तरह झल्लाती नहीं थी. कसमसाई. आवाज को संभाकर मैंने पूछा-"कहां पर है आप?"
" बाहर हूँ."
" कम से कम बताकर तो जाना कहिये था."-मैंने रोषपूर्ण स्वर में कहा-" आप बिना बताये ही चले गये."
" सॉरी......मैं लौट रहा हूँ." 
" इस वक्त कहाँ हो?"
" बेगमपुल पर हूँ."-उन्होंने बताया-"कुछ  काम था?"
" आ जाइए ."-मैंने कहा.-"मैं चाय बना रही हूँ.....आप सीधे  घर ही आ रहे हैं न?"
"हाँ."
मैंने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया.
***
मैं किचन में गयी और चाय बनाने लगी.
उस वक्त मैं रोज -ट्यूशन से आकर या छुट्टी के इन सोकर उठने के बाद- चाय पीती थी.मुझे नहीं पता था वो भी उस वक्त चाय पीते  थे या नहीं. फिर भी मैंने उनके लिए भी  चाय का पानी चढ़ा दिया.
बेगमपुल से साकेत तक आने में वक्त ही इतना लगता है.जब तक  मैंने चाय तैयार की तब तक वो भी आ गये. मैं दोनों की चाय अपने बैडरूम की बालकनी में ले गयी. उन्हें भी वहीं बुला लिया. वो जब वहां आये तो उनके चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे वो बघा बोर्डर पार करके पाकिस्तान में एंट्री ले रहे हों.
"आइये."-मैंने मेजबान वाला पूरा फर्ज निभाया-"बैठिये."
बालनी में दो  लोंजचेयर  पड़ी हुई थीं. हम दोनों उन्हीं पर बैठ गये. मैंने उन्हें चाय दी.
" आप कहाँ चले गये थे?"-मैंने पूछा-"बताकर  तो जाना चाहिए था."
" ऑफिस चला गया था."-उन्होंने बताया-"कई आम बाकी बचे थे. उनको निबटाना भी था."
" ओह."- मेरे  मूंह से निकला, साथ ही मैंने पूछा-" लंच कर लिया?"
" हाँ. टी.पी.नगर मैं ही कर लिया था."
" होटल में?"
"हाँ."
" कल से आपका  लंच घर से जाया करेगा ."-मैंने कहा.-" पा के टाइम में हमेशा ही खाना घर से जाता था."
"आप मेरे बारे में फ़िक्र  मत करो."-वो बोले-"मैं एजेस्ट कर लूँगा."
मेरे मन में आया की उनकी फेमिली के  बारे में बात करूं लेकिन नहीं की.पता नहीं क्यों मुझे लगा -वो मुझे शय कुछ न बताएं.
मैंने किसी मुद्दे पर बहस करने  के बजाए चुप रहना ही बेहतर समझा.चाय का सिप लेते  हुए मैने हिचकिचाते हुए कहा.(मेरा इरादा मंगलसूत्र के बारे में बात छेड़ने का था.कोई तो सूत्र पकड़ना था ही न)-"व्-व्-व्-वो म-म-मैं आज श-श-श-शशांक के घर गयी थी."
"शशांक?"-वो उलझे.
"श-श-शशांक, मेरा क्लासमेट ...."
"ओह हाँ. आपका बॉयफ्रेंड."-एकदम सहज भाव से  वो बोले-"उसे बताया दिया  इस बारे में ?"
मैंने इंकार में सिर हिला दिया.
"बता दो."-वो बोले-"साथ ही सिच्वेशन भी समझा दीजिये."
" आपने अपनी गर्लफ्रेंड को बता दिया?"
"हाँ"-उन्होंने कंधे उचका दिए-"यही बेस्ट तरीका था." 
मेरे मन को मानों उन्होंने बेरहमी के साथ मुठ्ठी में भींच दिया हो.अपनी तडप छिपाने के लिए मैं बालकनी के बाहर  लान की तरफ देखने लगी .
***
रात हो गयी.
तब तक शबनम आंटी अपने पति के साथ सामान लेकर आ गयी थीं.
बंगले में ही बने सर्वेंट क्वार्टर में  उन्हें रखा गया.एक में चौकीदार का सामान रखा हुआ था, दूसरे में शबनम  आंटी अपने पति के साथ  सेटल  हो गयी थीं.उनका एक बाईससाल का बेटा था, जो शादी-शुदा था, खराद का काम करता था और उनसे अलग रहता था. तकरीबन बीस साल की बेटी थी. वो भी शादी-शुदा थी. उसकी शादी को ज्यादा टाइम नहीं हुआ था, अपनी शादी से पहले वो-जब शबनम आंटी बीमार होती थीं तो हिना( उसका ये ही नाम है.) काम पर आ जाती थी.
गौरे रंग की हिना खासी खूबसूरत थी.चंचल  थी.
दसवी तक पढ़ी थी.मुझसे बहुत बार कहानियों वगैरह की किताबे  मांगकर ले जाती थी, पढकर लौटा भी जाती थी.
डिनर  मैंने और शबनम आंटी ने साथ मिलकर  बनाया.खाना जब बनकर तैयार हो गया तो मों बोली-"आंटी आप खाना टेबल और लगा दो तब तक मैं नहा लेती हूँ.गर्मी से बुरा हाल हो रहा है."
" टेबिल पर क्यूँ?"-आंटी हैरानी से बोली-"बेबी खाना तो मैं कमरे में ही भिजवा देती हूँ ना.अब कौन-सा आपके अब्बाजानी आप दोनों के साथ खाना खाने वाले हैं.आराम से एक दूसरे को खिलाते हुए खाना"-खाते समय उनका स्वर शरारतपूर्ण हो गया था.
मैं इनकार न कर सकी.
मन में जब चोर हो तो प्रतिवाद कम ही किया जाता है.
मैं बैडरूम में जाकर फटाफट नहाई.बाथरूम में ही कपड़े बदलकर बाहर निकली. उस समय बालों का जुदा बना लिया था.
मैं बैडरूम में पहुंची तो शबनम आंटी ट्राली में डिनर कमरे में छोडकर कमरे से बाहर जा रही थी.तब कमरे में वो नहीं थे. खान थे-पता नहीं.
" शब्बो आंटी."-मैंने उन्हें  पुकारा-"वो कहाँ  है?"
" शायद अपने कमरे में है."-वो बोली-"कुछ काम कर रहे हैं."
मैं समझ गयी कि उनका इशारा टॉप फ्लोर वाले कमरे की तरफ था-जहां `उनका'  सामान  रखा हुआ  था.
" जरा उन्हें भी यहाँ  भेज दो."-मैं कहकर तौलिये से मूंह पोंछने  लगी. 
जब वो चली गयीं तो मेरा ध्यान खाने पर गया.
खाने में सब्जी मात्र एक ही कटोरी  में थी. एक डोंगे हमेशा कि तरह और भी सब्जी थी  ताकि कटोरी खत्म होने पर उसमे से और सब्जी ली जा सके.
मैं तुरंत दौड़ती हुई बाहर गयी और पुकारा-"शब्बो आंटी, दूसरी कटोरी कहाँ  है?"
" दूसरी किसके लिए?"
"`उनके' लिए ."
"ये उनके लिए ही तो है."-वो मुस्कुराईं.
" और मैं......"-मैं चौंकी-"मैं किसमे खाऊँगी?"
" उसी में. उनके साथ."-वो शरारत से बोलीं-"साथ खाना से प्यार बढ़ता है, बेबी."
मैं कसमसाकर रह गयी.
वो चली गयी.
फिर मैंने गहरी साँस ली. आह-सी मन में फूटी.शब्बो आंटी गलत भी नहीं थी.दम्पत्ति यूं खाना खाते  भी हैं.
पर हम दंपत्ति थे ही कहाँ.
`वो' आये.
" खाना खा लीजिये."-मैंने कहा.
" यहीं."
" हाँ."-मैंने अपनी उन्गियाँ चटकाते हुए विवश भाव से कहा-"आंटी खाना यहीं रखा गयीं हैं........i think हमे आज रात भी इसी रूम में सोना भी पड़ेगा."
" दूसरी कटोरी नहीं है?"
" वो देकर गयी ही नहीं है.-मैने विवशता जाहिर की.
"ओह!"-वो  माथा खुजलाने लगे. एकदम सुसंयत. सोचने वाले भाव उने चेहरे उभरे और चंद पलों के बाद बोले-"शब्बो आंटी अपने क्वार्टर में गयीं?"
"हां, शायद."
" आप किचन में से एक कटोरी ले आओ."-वो बोले-" उन्हें कुछ पता नहीं चलेगा."
"पर फ्यूचर में क्या करेंगे?"
" कल से डाइनिंग टेबल पर ही खाना लगवाना."-उन्होंने हिदायत दी-"वहां अलग-अलग ही खाना खाया जायेगा."
"जी."
"अगर वो एक साथ खाना खाने पर जोर दें तो कह देना-`आंटी जी , हमे किस तरह प्या बढ़ाना है हमे पता है.वैसे भी एक कटोरी में खाना खाने में दिक्कत  होती है. सब्जी बहुत साड़ी बिखरकर खराब हो जाती है."
" जी."-कहकर में बैडरूम से बाहर निकल गयी.
***
डिनर के बाद वो वापिस जाने लगे तो मैंने पीछे से टोका-"कहाँ जा रहे हो?"
" अ-अपने बैडरूम में."-वो इनोसेंट भाव से बोले-"क्यों ?"
" शब्बो आंटी कोम क्या जवाब देंगे ?"-मैं फिर नर्वस हो गयी.
"उन्हें क्या पता चल रहा है ???"-वो बोले-"वो तो क्वार्टर में सोएंगी न."
"वो सुबह चार बजे जाग जाती हैं."-मैंने बताया-"जब मैं बीमार हुई थी तब वो मेरे साथ रही थीं.वो रोज चार बजे जाग जाती हैं और नमाज पढ़ती हैं."
"क्या करें?"-वो उलझनपूर्ण भाव से बुदबुदाए.
मैंने कंधे झटक दिए और बालकनी की तरफ बढ़ गयी . बालकनी में जाकर शबनम आंटी का का क्वार्टर साफ़ नजर आता है. क्वार्टर से भी बालकनी  साफ़ नजर आती है.
मैं बालकनी की रेलिंग के पास खड़ी हो गयी.
रात के वक्त हवाएं थोड़ी सी मखमली हो गयीं थी. मेरे बदन को जैसे बड़ी कोंलता से सहला रही थी.मैंने अपने धड का अगला हिस्सा- पेट- को रेलिंग   के  सहारे टिका दिया और अपनी बांहों को अपने वक्ष पर कैंची बनाकर समेटकर बांध लिया. एक  लम्बी साँस ली.
" do u trust me."-उनका देहद गंभीर स्वर मेरे कानों में पीछे कहीं पास से सुनाई पड़ा.
"हाँ."-मैं बोली.
"किंगसाइज बैड पर बीच में तकिये रखकर उसे सेपरेट करके आराम से सोया जा सकता है."-वो बोले.उनकी बिखरी सांसों का शोर मेरे कान के बेहजद पास था.  मुझे महसूस हो रहा था वो मुझसे मात्र चाँद इंच की दूरी पर, मेरे पीछे खड़े थे -"यकीन करो.आप मेरे लिए किसी की अमानत हो.अमानत में खयानत नहीं करूंगा."
मैंने कोई  जवाब नहीं दिया.
मैंने महसूस किया वो वहां से हट गये थे क्योंकि हवाओं की बेहद मद्धम सरसराहट में घुला उनकी सांसो का शोर लुप्त हो गया था 
मैं घूमी.
देखा-वो बैडरूम में नहीं थे.
कहाँ चले गये?
अगले ही पल मैं समझ गयी कि वो जरूर टॉप फ्लोर पर अपने रूम में चले हए होंगे.
***
मैं वहां गयी.
वो चेयर के हत्थे पर अपने बम टिकाकर किसी स्क्रिप्ट के पन्ने पलटकर-पलटकर देख रहे थे. 
ये दूसरा मौका था जब मैं उनकी मौजूदगी में आई थी.पहली बार गुस्से  में थी साथ ही नर्वस भी थी.तब मैं केवल नर्वस थी. अंदर जाते ही अपनी चुनरी का कौन अपनी तर्जनी अंगुली पर लपेटना शुरू कर दिया.
"अरे आप...."-वो मुझे देखकर चौंके.
"आप यहाँ क्यों चले आये?"-मैंने पूछा.
"थोडा-सा काम था."-उन्होंने बताया-"अभी मैं उसे निबटाना चाहता हूँ. आप आराम कीजिये."
"कब तक आओगे?"
" dont know.....may be- दो-तीन घंटे लग जायेंगे."
"ओह!"-मैं वापिस लौटने के लिए मुड गयी.
***
मैंने बिस्तर के बीच में दो तकिये लाइन से लगा दिए.
वो हमारे लिए बर्लिन की दीवार ही थी. मैंने लाईट बंद करनी जरूरी नहीं समझी.हमेशा मैं नेति पहनकर सोती थी, उस  कुरते -सलवार में  ही सो गयी पिछले रात भी यूं ही सोयी थी बसबाथरूम में जाकर मैंने ब्रा को उतर दिया था. सोते वक्त ब्रा तो मैं हमेशा ही उतर देती थी.(अब तो ये नेक काम `वो'ही करते है.)
मैं बिस्तर पर लेटी. चुनरी से गले से नीचे वक्ष कवर कर लिया.
मैं करवटें बदलती रही मगर कमबख्त नींद थी की आने का नाम नही ले रही थी.
वो रात को वहां आये  ही नहीं. 
रात के ढाई-तीन बजे तक तो मैं जागती रही थी, उसके बाद पता नहीं कब मुझे नींद ने दबोच लिया 

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