ये केस मेरठ का ही है.एक लेखक महोदय ने अपने नॉवल में एक जाति के बारे में वक आपत्तिजनक बात लिख दी. उस जाति के लोगों ने हंगामा मचा दिया. केस भी ठोक दिया. चूंकि वो जाति राजस्थान से समबम्ध रखती है सो केस राजस्थान में ही चला और लोग वहीँ पर जाया करते थे. तीन लोगों पर केस चला लेखक प्रकाशक और मुद्रक. तीनों लोगों की सात साला तक परेड हुई-यानी सात साल तक उनपर केस चला.
सात साल तक वो लोग खुद को सही सिद्ध करने में लगे रहे. सात साल केस लड़ने के बाद वो लोग केस हार गये. उनपर सजा के रूप में ५००-५०० रूपये का आर्थिल दंड लगा.
मेरी उन प्रकाशक साहब के रिश्तेदार से बात हुई जो केस में गवाह के तोर पर जाया करते थे. उन्होंने मुझे बताया की उन ५०० रुपयों को पे करने के बाद सब लोग हैरान थे-उनकी समझ में ये ही नहीं आ रहा था कि उन लोगों ने वो केस लड़ा ही क्यों?????
अगर सजा इतनी छोटी-सी थी तो उसके लिए सात साल तक लड़ने कि जरूरत ही क्या थी???वो शुरू में ही वो माफ़ी मांग लेते और वो उस सजा को भुगत लेते.
मैंने बाद में थोडा सा इसके बारे में सोचा.
मेरा मानना है कि उनको जो इतनी दिक्कत का सामना करना पड़ा उसकी वजह था वकील. उसे जरूर कानून की जानकारी होगी उसने मात्र अपनी फीस को कमाने के लिए उन्हें इतने टाइम तक उन लोगों को केस में उलझाये रखा.
सच तो ये है वकील का काम जनता तो कानून की पेचीदगियों से बचाना होता है वही कानून ने अनजान लोगों को काटने के लिए केस में उलझाये रखते है.
मैं मात्र वकीलों की बात नहीं कहूँगा. हल पेशेवर आदमी थोडा सा ज्यादा कमाने के लिए अपने फर्ज से गद्दारी करता है.
क्या ये सही है???????????
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