डिनर के समय भी उनका कोई पता नहीं था.
सच कह रही हूँ. मेरा मूड पूरी तरह ऑफ था.फिर भी डिनर करके रखवा दिया और उनका इंतज़ार करने लगी.
वो साढ़े नौ बजे आये. घर के नौकरशाम को ही छुट्टी करके जा चुके थे. शबनम आंटी अपने क्वार्टर में चली गयीं थीं.
कार के इंजन की आवाज जब मेरे कानों में पड़ी तो मैंने टी. वी. का वोल्यूम न केवल कम कर दिया बल्कि टी.वी. बंद भी कर दिया.कार के इंजन की घरघराहट बंद हो गयी. मैं रूम से निकलकर बाहर आ गयी. मैं रेलिंग के सहारे कड़ी थी कि वो बंगले के अंदर आये, हमेशा की तरह गंभीर.
वो अंदर आये और सीढियां चढ़कर मेरे पास आये.बोले-"आप यहाँ क्या कर रही हैं?"
"आपका इंतजार."
"सब ठीक है न.?"-वो तत्काल सतर्क भाव से बोले.
"हाँ...आपके मामा जी के घर से फोन आया था. वो चाहते थे कि हम डिनर उनके साथ करें. मैंने आपका फोन ट्राई किया था तो आपका फोन स्विच- ऑफ था."
" हा, मैंने कर दिया था."-वो बोले-"बाद में ऑन करना भूल गया था. मैं जब ज्यादा बिजी होता हूँ तो फोन को ऑफ कर देता हूँ."
"ओह ..."-मेरी नजर उनके चेहरे पर टिक गयी-"मैना ऑफिस वाले नम्बर पर ट्राई किया था. छाया ने बताया था आप ऑफिस में नहीं थे."
"ओह हां., मैं लंच के बाद बाहर चला गया था, कुछ काम था"-वो तत्काल जरा-से हडबडाए-से बोले -" तब मुझे कायदे से फोन को ऑन कर लेना चाहिए था पर नहीं किया. कोई ऐसा साइन भी नहीं था कि आप मेरे साथ फोन कर सकती."-फिरती से सब्जेक्ट चेंज किया-" आप चिंता मत करो. मामा जी से माफ़ी मांग लूँगा."
कहकर वो मुड़े तो मैंने टोका -" कहाँ जा रहे हो?"
"अपने रूम में ."
"आपका सामान अब मेरे रूम में शिफ्ट किया जा चुका है..."अँगुलियों को आपस में गूंथकर मरोड़ती हुई मैं बोली.
" क्या ?"-वो चिहुंके-"सामान यहाँ क्यों रख लिया आपने?"
"मैंने नहीं, शब्बो आंटी ने किया है."-मैं विवश भाव से बोली .साथ ही वो पूरा एपिसोड सुना दिया जब शबनम आंटी ने सामान मेरे कमरे में रखने को कहा था.
उन्होंने आह-सी भरी.
" आपने डिनर कर लिया."- मैंने पूछा.
"नहीं.."वो बोले -"पर ज्यादा भूख नहीं है. कॉफ़ी का स्नेक्स वगैरह से काम चल जायेगा."
"मैने भी डिनर नहीं किया."-मैने कहा-"आप कपड़े बदल लो. मैं डिनर लेकर आती हूँ."
***
मैं बैडरूम में डिनर लेकर गयी तो मैंने उभे बाथरूम में से निकलते हुए देखा. वो कपड़े बदल चुके थे, और कुरता पायजामा पहन चुके थे.
मैं बैडरूम में डिनर लेकर गयी तो मैंने उभे बाथरूम में से निकलते हुए देखा. वो कपड़े बदल चुके थे, और कुरता पायजामा पहन चुके थे.
हम दोनों ने साथ ही खाना खाया. तब मैं अलग-अलग कटोरियाँ लेकर आयी थी.
"अब???"-खान खाने के बाद उन्होंने सवालिया निगाह मेरी ओर डालते हुए `आह` भरी.
मैंने भी कंधे झटक दिए.
जानबूझकर दूसरी दिशा में देखने लगी.
"त-त -तकिये हैं .?"-वो हिचकिचाते हुए बोले.
"हाँ......."-मैं धीरे से बोली.
"ओके....."आह भरकर वो बोले-"निकल लो."
मैं कबर्ड की तरफ बढ़ गयी.
***
बिस्तर पर तकियों की मखमली दीवार लगाकर हम दोनों बिस्तर के दोनों कोनो पर लेट गये.
तब कुल ही सवा दस बजे थे. हम दोनों ही ग्यारह-बारह बजे के बाद सोने वाला थे. यूं नींद आने का सवाल ही नहीं उठता था. हाँ,ये बात सच अवश्य थी कि मन में न तो खलबली मच रही थी, न मन में तरंगें दौड़ रही थी.
मैं जरा-सी कम्फर्ट फील करने लगी थी,पर नींद आने में देर लगी.
***
"मैडम जी..."-चंपा, घर कि नौकरानी ने सुबह के समय कहा-"धुलने के लिए कपड़े दे दो."
"हाँ, ठहर..."-मैंने मैग्जीन को एक तरफ रखते हुए कहा. उस समय मैं ड्राइंगरूम में ही थी. चुकी जुलाई का महीना था, मौसम था ही बरसात का.बाहर बूँदें पड़ रही थीं.
मैं सोफे कपर से उठी और स्टेयर्स की ओर बढ़ गयी.-"चल आ जा."
चंपा ना मुझे फोलो किया.
***
अपने रूम में जाकर मैना अपने कबर्ड में से आने मैले कपड़े निकले और चंपा को दिए, तो चंपा चौंकी-"साहब के कपड़े नहीं देने,मैडम जी?"
मैं चौंकी.
अगले ही पल मुझे याद आया की `उनके` कपड़े भी तो वहीँ होंगे.
कहाँ रख दिए?
मैंने देखे तो उनके वो कपड़े, जो उन्होंने पिछले दिन पहने थे,मुझे दुसरे कबर्ड में मिल गये. मैंने उन कपड़ों को चंपा को देने के लिए चंपा की ओर बढाया ही था कि मैं ठिठकी.मन में आया कहीं उनकी जेब में कुछ ख़ास चीज या कागज या फिर पैसे इत्यादि न रह गये हों, सो मैंने उनकी जेबों को टटोलना शुरू किया. शर्ट कि जेब में कुछ भी नहीं मिला. पैंट कि जेब में मेरा हाथ गया तो मैं जरा-सी चौंकी.
उसमें कुछ था.
क्या?????
गहन उत्कंठा की वजह से मेरा हाथ उस चीज को पकडे बाहर आयाजैसे मेरे बदन का पूरा लहू गर्म तेजाब बन गया था. चंपा की निगाह भी उस पर पड़ चुकी थी. इसके होठों पर अर्थपूर्ण मुस्कान न्रत्य कर रही थी.
वो एक कंडोम का पैकेट था.
खुला हुआ था.
मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ?कैसे रिएक्ट करूँ? मैंने तत्काल ही उस पैकेट को वापिस पैंट की जेब में रख दिया. फिर याद आया कपड़े धुलने को भी देने थे. स मैंने पैकेट को बहार निकालकर कपड़े चंपा को दे दिए. चाँद पलों में भी वो वहां से नहीं हिली तो मैंने उसको डांट दिया-" खड़ी-खड़ी क्या देखा रही है? जा अपना काम कर."
मैंने साफ़ नोटिस किया कि उसकी अर्थपूर्ण मुस्कान बेहद गहरी होके हंसी में तब्दील होने वाली थी अपनी हंसी को दबाकर वो कपड़े लेकर मुड गयी.
मेरा बदन तब भी तप रहा था.
ये पैकेट कहाँ से आया?
मैंने पैकेट को खोलकर देखा. उसमें दो कंडोम थे. एक कम था उसके पैकेज के हिसाब से.
ओह! तो कल जब वो ऑफिस से गायब थे तो जरूर अपनी गर्लफ्रैंड के पास होंगे . उसी वक्त इस पैकेट से एक कंडोम कम हुआ होगा.
पता नहीं क्यों, उनपर मेरा हक न होने के बावजूद भी , मुझे तकलीफ हुई थी. बहुत ज्यादा नहीं हुई, पर हुई.
मैं जरा-सी कम्फर्ट फील करने लगी थी,पर नींद आने में देर लगी.
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"मैडम जी..."-चंपा, घर कि नौकरानी ने सुबह के समय कहा-"धुलने के लिए कपड़े दे दो."
"हाँ, ठहर..."-मैंने मैग्जीन को एक तरफ रखते हुए कहा. उस समय मैं ड्राइंगरूम में ही थी. चुकी जुलाई का महीना था, मौसम था ही बरसात का.बाहर बूँदें पड़ रही थीं.
मैं सोफे कपर से उठी और स्टेयर्स की ओर बढ़ गयी.-"चल आ जा."
चंपा ना मुझे फोलो किया.
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अपने रूम में जाकर मैना अपने कबर्ड में से आने मैले कपड़े निकले और चंपा को दिए, तो चंपा चौंकी-"साहब के कपड़े नहीं देने,मैडम जी?"
मैं चौंकी.
अगले ही पल मुझे याद आया की `उनके` कपड़े भी तो वहीँ होंगे.
कहाँ रख दिए?
मैंने देखे तो उनके वो कपड़े, जो उन्होंने पिछले दिन पहने थे,मुझे दुसरे कबर्ड में मिल गये. मैंने उन कपड़ों को चंपा को देने के लिए चंपा की ओर बढाया ही था कि मैं ठिठकी.मन में आया कहीं उनकी जेब में कुछ ख़ास चीज या कागज या फिर पैसे इत्यादि न रह गये हों, सो मैंने उनकी जेबों को टटोलना शुरू किया. शर्ट कि जेब में कुछ भी नहीं मिला. पैंट कि जेब में मेरा हाथ गया तो मैं जरा-सी चौंकी.
उसमें कुछ था.
क्या?????
गहन उत्कंठा की वजह से मेरा हाथ उस चीज को पकडे बाहर आयाजैसे मेरे बदन का पूरा लहू गर्म तेजाब बन गया था. चंपा की निगाह भी उस पर पड़ चुकी थी. इसके होठों पर अर्थपूर्ण मुस्कान न्रत्य कर रही थी.
वो एक कंडोम का पैकेट था.
खुला हुआ था.
मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ?कैसे रिएक्ट करूँ? मैंने तत्काल ही उस पैकेट को वापिस पैंट की जेब में रख दिया. फिर याद आया कपड़े धुलने को भी देने थे. स मैंने पैकेट को बहार निकालकर कपड़े चंपा को दे दिए. चाँद पलों में भी वो वहां से नहीं हिली तो मैंने उसको डांट दिया-" खड़ी-खड़ी क्या देखा रही है? जा अपना काम कर."
मैंने साफ़ नोटिस किया कि उसकी अर्थपूर्ण मुस्कान बेहद गहरी होके हंसी में तब्दील होने वाली थी अपनी हंसी को दबाकर वो कपड़े लेकर मुड गयी.
मेरा बदन तब भी तप रहा था.
ये पैकेट कहाँ से आया?
मैंने पैकेट को खोलकर देखा. उसमें दो कंडोम थे. एक कम था उसके पैकेज के हिसाब से.
ओह! तो कल जब वो ऑफिस से गायब थे तो जरूर अपनी गर्लफ्रैंड के पास होंगे . उसी वक्त इस पैकेट से एक कंडोम कम हुआ होगा.
पता नहीं क्यों, उनपर मेरा हक न होने के बावजूद भी , मुझे तकलीफ हुई थी. बहुत ज्यादा नहीं हुई, पर हुई.
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